Friday, July 24, 2009


फैज़ की एक नज़्म






इन्तिसाब



आज के नाम


और

आज के ग़म के नाम

आज का ग़म के: है ज़िन्दगी के भरे गुलसिताँ से ख़फ़ा

ज़र्द पत्तों का बन

ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है

दर्द की अंजुमन जो मेरा देस है

किलर्कों की अफ़सुर्दा जानों के नाम

किर्मख़ुर्दा दिलों और ज़बानों के नाम

पोस्टमैनों के नाम

ताँगेवालों के नाम

रेलवानों के नाम

कारख़ानों के भोले जियालों के नाम

बादशाहे-जहाँ, वालिए-मासिवा, नायबुल्लाहे-फ़िल-अर्ज़,

दहक़ाँ के नाम

जिसके ढोरों को ज़ालिम हँका ले गए

जिसकी बेटी को डाकू उठा ले गए

हाथ-भर खेत से एक अंगुश्त पटवार ने काट ली है

दूसरी मालिये के बहाने से सरकार ने काट ली है

जिसकी पग ज़ोरवालों के पाँवों तले

धज्जियाँ हो गई है

उन दुखी माओं के नाम

रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और

नींद की मार खाए हुए बाजुओं से सँभलते नहीं

दुख बताते नहीं

मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं


उन हसीनाओं के नाम

जिनकी आँखों के गुल

चिलमनों और दरीचों की बेलों पे बेकार खिल-खिल-खिल के

मुर्झा गये हैं।


उन ब्याहताओं के नाम

जिनके बदन

बेमुहब्बत रियाकार सेजों पे सज-सज के उकता गये हैं

बेवाओं के नाम

कटड़ियों और गालियों, मुहल्लों के नाम

जिनकी नापाक ख़ाशाक से चाँद रातों

को आ-आ के करता है अक्सर वज़ू

जिनके सायों में करती हैं आहो-बुका

आँचलों की हिना चूड़ियों की खनक

काकुलों की महक

आरजूमंद सीनों की अपने पसीने में जलने की बू


तालिबइल्मों के नाम

वो जो असहाबे-तब्लो-अलम

के दरों पर किताब और क़लम

का तक़ाज़ा लिये, हाथ फैलाए

पहुंचे, मगर लौटकर घर न आये

वो मासूम जो भोलेपन में

वहाँ अपने नन्हें चिराग़ों में लौ की लगन

ले के पहुँचे, जहाँ

बँट रहे थे घटाटोप, बेअंत रातों के साये


उन असीरों के नाम

जिनके सीनों में फ़र्दा के शबताब

गौहर जेलख़ानों की शोरीद: रातों की सरसर में

जल-जल के अंजुम नुमाँ हो गये हैं

आनेवाले दिनों के सफ़ीरों के नाम

वो जो ख़ुशबू-ए-गुल की तरह

अपने पैग़ाम पर ख़ुद फ़िदा हो गये हैं।

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