Monday, July 13, 2009


(मुक्तिबोध की कवितायें - - - - - - - - - - - - - -



पता नहीं कब, कौन, कहाँ किस ओर मिले,
किस सांझ मिले, किस सुबह मिले!!
यह राह जिंदगी की
जिससे जिस जगह मिले
...टटोलो मन, जिससे जिस छोर मिले,
कर अपने-अपने तप्‍त अनुभवों की तुलना
घुलना मिलना!!
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स्‍वर्गीय उषा
तुमको निहारती बैठेगी
आत्‍मीय और इतनी प्रसन्‍न
मानव के प्रति, मानव के जी की पुकार
जितनी अनन्‍य!
('पता नहीं')
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आदमी की दर्दभरी गहरी पुकार सुन
पड़ता है दौड़ जो
आदमी है वह ख़ूब
जैसे तुम भी आदमी
वैसे मैं भी आदमी,
बूढ़ी मां के झुर्रीदार
चेहरे पर छाए हुए
आंखों में डूबे हुए
जिंदगी के तजुर्बात
बोलते हैं एक साथ
जैसे तुम भी आदमी
वैसे मैं भी आदमी!
('चांद का मुंह टेढ़ा है')
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कोशिश करो
कोशिश करो
जीने की,
ज़मीन में गड़कर भी!
('एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्‍मकथ्‍य')
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बहुत अच्‍छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने...
सब सच्‍चे लगते हैं
अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है,
मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ,
जाने क्‍या मिल जाए!!

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्‍येक पत्‍थर में
चमकता हीरा है
हर-एक छाती में आत्‍मा अधीरा है,
प्रत्‍येक वाणी में महाकाव्‍य-पीड़ा है,
पलभर मैं सबमें से गुज़रना चाहता हूँ,
प्रत्‍येक उर में से तिर आना चाहता हूँ,
इस तरह ख़ुद को ही दिए-दिए फिरता हूँ.
('मुझे क़दम-क़दम पर')
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यदि उस श्रमशील नारी की आत्‍मा
सब अभावों को सहकर
कष्‍टों को लात मार, निराशाएँ ठुकराकर
किसी ध्रुव-लक्ष्‍य पर
खिंचती-सी चली जाती है,
जीवित रह सकता हूँ मैं भी तो वैसे ही!
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थूहर के झुरमुटों से लसी हुई मेरी इस राह पर
धुंधलके में खोए इस
रास्‍ते पर आते-जाते दीखते हैं
लठ-धारी बूढ़े-से पटेल बाबा
ऊँचे-से किसान दादा
वे दाढ़ी-धारी देहाती मुसलमान चाचा और
बोझा उठाए हुए
माएँ, बहनें, बेटियाँ...
सबको ही सलाम करने की इच्‍छा होती है,
सबको राम-राम करने को चाहता है जी
आंसुओं से तर होकर प्‍यार के...
(सबका प्‍यारा पुत्र बन)
सभी ही का गीला-गीला मीठा-मीठा आशीर्वाद
पाने के लिए होती अकुलाहट
किंतु अनपेक्षित आंसुओं की नवधारा से
कंठ में दर्द होने लगता है
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असह्य-सा स्‍वयं-बोध विश्‍व-चेतना-सा कुछ
नवशक्ति देता है
('मुझे याद आते हैं')
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गिरस्तिन मौन मां-बहनें
सड़क पर देखती हैं
भाव-मंथर, काल-पीडित ठठरियों की श्‍याम गो-यात्रा
उदासी से रंगे गंभीर मुरझाए हुए प्‍यारे
गऊ-चेहरे
निरखकर,
पिघल उठता मन!!
रुलाई गुप्‍त कमरे में हृदय के उभड़ती-सी है!!
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भोले भाव की करुणा बहुत ही क्रांतिकारी सिद्ध होती है.
('मेरे लोग')
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अरे! जन-संग ऊष्‍मा के
बिना, व्‍यक्तित्‍व के स्‍तर जुड़ नहीं सकते.
प्रयासी प्रेरणा के स्रोत
सक्रिय वेदना की ज्‍योति,
सब साहाय्य उनसे लो.
तुम्‍हारी मुक्ति उनके प्रेम से होगी.
कि तदगत लक्ष्‍य में से ही
हृदय के नेत्र जागेंगे,
वह जीवन-लक्ष्‍य उनके प्राप्‍त
करने की क्रिया में से
उभर-ऊपर
विकसते जाएँगे निज के
तुम्‍हारे गुण
कि अपनी मुक्ति के रास्‍ते
अकेले में नहीं मिलते!
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मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
सभी प्रश्‍नोत्‍तरी की तुंग प्रतिमाएँ
गिराकर तोड़ देता हूँ हथौड़े से
कि वे सब प्रश्‍न कृत्रिम और
उत्‍तर और भी छलमय,
समस्‍या एक-
मेरे सभ्‍य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव-
सुखी, सुंदर व शोषण-मुक्‍त
कब होंगे?
('चकमक की चिनगारियाँ')
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उन जन-जन का दुर्दांत रुधिर
मेरे भीतर, मेरे भीतर.
उनकी हिम्‍मत, उनका धीरज,
उनकी ताक़त
पायी मैंने अपने भीतर.
कल्‍याणमयी करुणाओं के
वे सौ-सौ जीवन-चित्र लिखे
मंडराता है मेरा जी चारों ओर सदा
उनके ही तो.
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मस्तिष्‍क तंतुओं में प्रदीप्‍त वेदना यथार्थों की जागी
वह सड़क बीच
हर राहगीर की छांह तले
उसका सब कुछ जीने पी लेने की उतावली
यह सोच कि जाने कौन वेष में कहां वह कितना सत्‍य मिले-

वह नत होकर उन्‍नत होने की बेचैनी!
('जब प्रश्‍नचिह्न बौखला उठे')
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अजाने रास्‍तों पर रोज़
मेरी छांह यूं ही भटकती रहती
किसी श्‍यामल उदासी के कपोलों पर अटकती है
अंधेरे में, उजाले में,
कुहा के नील कुहरे और पाले में
व खड्डो-खाइयों में घाटियों पर या पहाड़ों के

कगारों पर
किसी को बांह में भर, चूमकर, लिपटा
हृदय में विश्‍व-चेतस अग्नि देती है
कि जिससे जाग उठती है
समूची आत्‍म-संविद् उष्‍मश्‍वस् गहराइयां,
गहराइयों से आग उठती है!!
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मैं देखता क्‍या हूं कि-
पृथ्‍वी के प्रसारों पर
जहां भी स्‍नेह या संगर,
वहां पर एक मेरी छटपटाहट है,
वहां है ज़ोर गहरा एक मेरा भी,
सतत् मेरी उपस्थिति, नित्‍य-सन्निधि है.
('अंत:करण का आयतन')
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सचमुच, मुझको तो जिंदगी-सरहद
सूर्यों के प्रांगण पार भी जाती-सी दीखती!!
मैं परिणत हूँ,
कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता
पूंजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता,
स्‍वातंत्र्य व्‍यक्ति का वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को
जन को.

6 comments:

संदीप said...

चकमक की चिंगारियां' मेरी पसंदीदा कविता है, इसका पोस्‍टर बनाकर अपनी कमरे में भी लगा रखा है।
कविता यहां प्रस्‍तुत करने के लिए कोई आभार नहीं, कोई साधुवाद नहीं, आपने वही किया जिसकी सख्‍़त ज़रूरत है। एक पोस्‍ट में मुक्तिबोध की कई कविताएं पढ़कर अच्‍छा लगा।

डिम्पल मल्होत्रा said...

khoobsurat kavita pad ke boht khushi huee....

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

nice.narayan narayan

Anonymous said...

मुक्तिबोध क्र्र कविताएं हर पाठ में कितना कुछ नया दे जाती हैं...

एक आंतरिक संतुष्टि का अहसास...

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

सोनल said...

कृपया चकमक की चिनगारियां कविता शेयर करें