Friday, January 7, 2011


फैज पर मनमोहन का आलेख : गुरूरे इश्क का बांकपन




ये फैज अहमद फैज का जन्‍मशताब्‍दी वर्ष है। इस मौके पर हिंदी की जिस पहली पत्रिका ने उन पर विशेषांक निकाला है, वह है नया पथ। इसके संपादक हैं वरिष्‍ठ आलोचक मुरली मनोहर प्रसाद सिंह। एक जनवरी को सफदर की याद में हर साल लगने वाले मेले में नया पथ के इस अंक का लोकार्पण हुआ। उस दिन हर तीसरे हाथ में ये पत्रिका नजर आ रही थी। शेष नारायण जी ने बाद में फोन पर बताया कि इस पत्रिका को तो पढ़ो ही, इसमें मनमोहन का लेख जरूर पढ़ना। फिर उन्‍होंने बताया कि मनमोहन कितने बड़े कवि हैं और कैसे राजेश जोशी कहते रहे हैं कि मुझे मनमोहन की कविताओं से डर लगता है। उन्‍होंने नया पथ के इस अंक की इमेज फाइल मुहैया भी करायी, लेकिन हम उसे टेक्‍स्‍ट में कनवर्ट नहीं कर पाये। भला हो श्री सत्‍यानंद निरुपम का कि उन्‍होंने वाया मुरली बाबू पूरा का पूरा टेक्‍स्‍ट हमें मेल कर दिया। हमारी आदतों के मद्देनजर उन्‍होंने धमकी भी दी कि शीर्षक से छेड़छाड़ मत कीजिएगा और नया पथ का पूरा पता जरूर दीजिएगा। तो नया पथ का पूरा पता है : 42, अशोक रोड, नयी दिल्‍ली 110001, फोन : 23738015, 27552954, 22750117, ईमेल : jlscentre@yahoo.कॉम



♦ मनमोहन

फैज अहमद फैज और उनकी शायरी की जगह और उसका मूल्य ठीक-ठीक वही बता सकते हैं, जो उर्दू जुबान और अदब के अच्छे जानकार और अधिकारी विद्वान हैं। मेरी समाई तो सिर्फ इतनी है कि अपने कुछ ‘इंप्रेशंस’ (या इस कवि के साथ अपने लगाव की कुछ तफसीलें) रख दूं, सो यहां मैं इन्हीं को रखने की कोशिश करता हूं।

7वीं दहाई के जनवादी उभार के वर्षों में खासतौर पर, और उसके बाद लगातार, हमारी पीढ़ी की हिंदी रचनाशीलता को हमारे जिन बुजुर्ग उस्तादों का खामोश लेकिन मजबूत साथ और सहारा मिला, उनमें जर्मनी के बर्तोल्‍त ब्रेख्त, तुर्की के नाजिम हिकमत और हमारी उर्दू जुबान के फैज अहमद फैज शायद सबसे अहम थे। शायद इस पूरे दौर में नयी रचनाशीलता को ब्रेख्त की कठोर आलोचनाशीलता और द्वंद्वात्मकता ने देखना सिखाया है और फैज या नाजिम हिकमत की खरी क्रांतिकारी रूमानियत ने मौजूदा रणक्षेत्र में अपने पक्ष के साथ खड़े रहने का हौसला दिया है और पराजय और अलगाव के कठिन क्षणों में अपनी स्वप्नशीलता और स्वाभिमान की हिफाजत करना सिखाया है।

यह बात भी गौर करने लायक है कि पुराने प्रगतिशील आंदोलन की अत्यंत संपन्न विरासत में भी क्यों फैज की उपस्थिति हमें सबसे जीवित और दमदार लगती रही है। वे आज भी लगभग हर तरह से हमारे समकालीन हैं। बल्कि मैं सोचता हूं, 1990 के बाद नव-साम्राज्यवादी बर्बरता के नये आलम में फैज की शायरी में हमारे दिलों की धड़कन और ज्यादा साफ सुनाई देने लगी है।

मुझे याद है कि इमरजेंसी के खौफनाक दिनों में जब सव्यसाची द्वारा संपादित ‘उत्तरार्द्ध’ का पहला अंक (वैसे अंक 11) छपा और पत्रिका की पीठ पर फैज की नज्म ‘लहू का सुराग’ (‘कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं लहू का सुराग’) छपी, तो कितना बुरा-भला सुनना पड़ा। एकाध क्रांतिकारी दोस्तों ने यहां तक कहा कि फैज ‘भुट्टो के एंबेसडर’ के सिवा क्या हैं। इनकी कविता आपने क्यूं छापी! और ‘दस्ते-नाखुने-कातिल’ या ‘खूंबहा’ जैसे लफ्जों को कितने लोग समझते हैं? लेकिन मेरा खयाल है कि यह नज्म और इसके अलावा उन दिनों इसी पत्रिका में छपी ‘बोल के लब आजाद हैं तेरे’ और ‘निसार मैं तेरी गलियों पे’ जैसी नज्में न सिर्फ समझी गयीं, बल्कि इन्होंने उस कठिन समय में अजीब सी ताकत दी और हमारे नैतिक-भावनात्मक विक्षोभ को स्वर दिया।

यह मेरी खुशनसीबी है कि मुझे फैज साहब को सुनने का और उनसे छोटी सी मुलाकात का मौका मिला। शायद यह 1978-79 के बीच की बात है। एक दिन सुनाई दिया कि फैज हिंदुस्तान ही में हैं और (शायद ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ हो कर?) कुछ दिन के लिए जवाहरलाल नेहरू यूनीवर्सिटी में ही चले आये हैं। हम लोग बड़े खुश थे। फिर एक दिन उनका काव्य-पाठ हुआ। शायद उस वक्त के ‘डाउन कैंपस’ की क्लब बिल्डिंग के पास की खुली जगह में कुछ कनातें खड़ी की गयीं थीं और मंच भी बांधा गया था। उस धूप वाले दिन का खुला नीला आसमान अभी भी याद है। फैज साहब ने जम कर अपनी ढेर सारी नज्‍में, गजलें कही थीं। जब वे खड़े हुए और उन्हें पहली बार देखा, तो थोड़ा अजीब सा लगा। सिर्फ उन्हें देख कर एक बार उस छवि को कुछ धक्का सा लगता था जो उनका पढ़ते-सुनते हुए मन ही मन बन गयी थी। सफारी सूट पहने (शायद एकाध अंगूठी भी), कुछ भारी-भारी सा डील-डौल लिये यह गंजे से सर वाला लंबा-चौड़ा शख्‍स देखने में कतई स्टेट बैंक या जीवन बीमा निगम का ‘टिपिकल’ अफसर या मैनेजर लगता था। लेकिन जब फैज साहब ने सुनाना शुरू किया तो उनकी आवाज ने दिल को छू लिया, बल्कि सीधे पकड़ लिया।

हालांकि हमने मुशायरे की परंपरागत धज में तरन्नुम के साथ ‘जलद-मंद्र-स्वर’ में किया हुआ मजरूह सुल्तानपुरी का प्रभावशाली पाठ सुना है; धारावाहिक वक्तृता की शैली में कैफी आजमी या सरदार जाफरी का नज्में पढ़ना देखा है; बाबा नागार्जुन की बांध लेने वाली ‘थियेटरीकल’ प्रस्तुतियां देखी हैं; आलोकधन्वा का अविस्मरणीय काव्य-पाठ सुना है; और तो और जेएनयू के ‘स्पेनिश सेंटर’ की मेहरबानी से ‘रिकॅर्डेड’ आवाज में नेरूदा के स्पेनिश पाठ की एक बानगी देखने और आरोह-अवरोह के साथ उनकी नाद-गुण संपन्न गहिर गंभीर वाग्मिता की स्‍पंदित स्वर लिपि को सुनने का सौभाग्य भी मिला है। लेकिन फैज का अंदाज इन सबसे अलग था। यह किसी भी तरह की ‘परफोरमेंस’ से कोसों दूर था। फिर भी उनकी आवाज में एक जादुई छुअन थी, जिसमें अपने कमाये हुए गहरे दर्द के एहसास के साथ एक ठहरी थकान और अनमनेपन में लिपटी विलक्षण कोमलता और आत्मीयता का मेल था। यह एक दुख उठाये हुए, अनुभव संपन्न, उम्रजदा शख्‍स की दिलासा और भरोसा दिलाती हुई आवाज थी। ऐसी आवाज शायद अब कुछ पुरानी बूढ़ी, घरेलू स्त्रियों के पास ही बची मिलगी। फैज इतने बेबनाव और सादे तरीके से कविताएं कहते थे कि कोई भी काव्य-रसिक उसे खराब तरीके का काव्य-पाठ भी कह सकता था, लेकिन यह शायद ज्यादा अच्छा तरीका था। उनके अलावा यह चीज रघुवीर सहाय के काव्य-पाठ में भी मिलती थी, बल्कि वे तो इसका उपयोग एक सचेत युक्ति की तरह करते थे। शमशेर का कहने का अंदाज भी गुफ्तगू ही का अंदाज था, जो उनकी कविताओं के मिजाज में ढला हुआ था और गजल तो अपनी परिभाषा में ही दिल से दिल की गुफ्तगू है।

खैर, फैज साहब ने जम कर सुनाया। वह नज्म भी – ‘कुछ इश्‍क किया, कुछ काम किया’। फरमाइशें भी खूब हुईं। जो किसी ने कहा, ‘फैज साहब, ‘गुलों में रंग भरे’ भी सुनाइए’, तो फैज साहब ने हंस कर कहा, ‘कौन सी सुनाऊं, नूरजहां वाली सुनाऊं कि मेहंदी हसन वाली सुनाऊं’ और सब हंस पड़े।

इस बात का कम महत्त्व नहीं है कि फैज की शायरी को नूरजहां, बेगम अख्तर, अमानत अली खां, मलिका पुखराज, इकबाल बानो, अली बख्‍श जहूर, फरीदा खानम, फिरदौसी बेगम, बरकत अली खां, शांति हीरानंद और मेहंदी हसन जैसी अदभुत आवाजें नसीब हुईं। गालिब की शायरी के बाद इतनी तादाद में अव्वल दर्जे के गायकों ने, किसी और शायर की चीजें शायद ही गायी हों। यकीनन इससे फैज की शायरी का दायरा विस्तृत हुआ है। उनकी शायरी के गूढ़ार्थ और अनेक अर्थछटाएं उदघाटित हुए हैं। फैज को पढ़कर हमने जितना जाना है, हिंदुस्तान और पाकिस्तान के महान गायकों से सुनकर कम नहीं जाना। गायक भी आखि़रकार अपने गाने से ‘टैक्स्ट’ की अपनी व्याख्या पेश करता है और एक प्रकार से कृति की पुनर्रचना करता है लेकिन शायद इसकी गुंजाइशें ‘टैक्स्ट’ में पहले से छिपी होती हैं।

एक दिन रूसी भाषा केंद्र के ऑडिटोरियम में फैज ने अल्लामा इकबाल पर अपना पर्चा पढ़ा, शायद अंग्रेजी में। यह विद्वत्तापूर्ण और जानकारी से भरा हुआ पर्चा उनकी शायरी के मिजाज से मेल नहीं खाता था। वैसे अंग्रेजी में उपलब्ध उनके ज्यादातर गद्य में कई बार नवशास्‍त्रीय किस्म की अकादमिकता हावी दिखाई देती है। इकबाल की शख्‍सियत और उनकी शायरी में फैज साहब की कुछ खास और बुनियादी किस्म की दिलचस्पी लगती थी। कुछ-कुछ वैसा ही रिश्‍ता था, जैसा रवींद्रनाथ और निराला का या प्रसाद और मुक्तिबोध का। बाद में यह भी पता चला कि इकबाल भी स्यालकोट के ही थे और इकबाल के प्रभाव की सघन छाया में ही एक नवोदित कवि के रूप में फैज का विकास हुआ था।

1978 में मैं रोहतक आ गया था। लेकिन इसके बाद भी लगभग दो साल तक मेरा रिश्‍ता जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र से बना रहा। रोहतक में डॉ ओमप्रकाश ग्रेवाल अंग्रेजी विभाग में प्रोफेसर थे। उन्होंने और डॉ भीम सिंह दहिया (जो उस वक्त विश्‍वविद्यालय के रजिस्ट्रार भी थे) ने मुझसे कहा कि मैं किसी तरह फैज साहब को रोहतक लाऊं। मैंने डॉ मुहम्मद हसन (जो एमए में मेरे शिक्षक भी रहे थे) से कहा कि फैज साहब को मुझे रोहतक ले जाना है। उन्होंने कहा कि मैं अगले दिन 11 बजे सेंटर में उनके कमरे में आ कर फैज साहब से खुद ही बात कर लूं।

शुरू में मुहम्मद हसन साहब से मेरा रिश्‍ता कतई औपचारिक और नपा-तुला था, लेकिन गहरा था। यों वे बात करने में सख्त, कंजूस और बेहद चौकन्ने शख्‍स लगते थे लेकिन उनके अंदर बंटवारे का सच्चा दर्द और एक तरह का सात्विक विक्षोभ था। नामवर जी और मुहम्मद हसन के जेएनयू में आने के बाद हिंदी-उर्दू के पाठ्यक्रमों को लेकर, खासतौर से हिंदी विद्यार्थियों को उर्दू का क्रेडिट कोर्स करने या पाठ्यक्रम के एक हिस्से को दोनों भाषाओं के लिए समावेशी ढंग से तैयार करने को लेकर पहली स्ट्डैंट फैकल्टी कमेटी में जो बहस हुई, उसमें हसन साहब और हमारा एक ही पक्ष था। ‘प्रगतिशील लेखक महासंघ’ (जो उन्हीं दिनों नयी शक्‍ल में खड़ा किया गया संगठन था) के आपातकाल के समर्थन में निकले प्रपत्र पर छपे अपने नाम को लेकर उनके मन में घोर ग्लानि थी। उन्हीं दिनों आपातकाल को लेकर उन्होंने अपना बेहद अच्छा नाटक ‘जेहाक’ हमें सुनाया था।

खैर, अगले दिन जब मैं 11 बजे मुहम्मद हसन साहब के कमरे में दाखिल हुआ, तो फैज साहब उनकी ‘अध्यक्षीय’ कुर्सी के सामने की कुर्सी पर बैठे थे। हसन साब ने मुझे देखते ही उनसे कहा, ‘जनाब यही हैं, जिनका जिक्र मैं कल आपसे कर रहा था। मनमोहन साब हमारे शागिर्द हैं। इन दिनों रोहतक यूनिवर्सिटी में हैं और आपको रोहतक ले जाना चाहते हैं।’ फैज साहब ने, जो अब तक खड़े हो गये थे, तपाक से हाथ मिलाया, जैसे गले मिल रहे हों। उनकी आंखें झिलमिला रही थीं, बोले, ‘रोहतक! अरे भाई रोहतक तो हमारा वतन है, जरूर चलेंगे। वैसे मैं अभी कुछ दिन पहले ही चंडीगढ़ (या शायद कुरुक्षेत्र?) हो कर आया हूं, लेकिन रोहतक जरूर चलना है। अभी तो बाहर (विदेश, फ्रांस या शायद सोवियत यूनियन?) जाना है, लौट कर प्रोग्राम बनाते हैं।’ मैं सोचता रह गया रोहतक और इनका वतन! कुछ दिनों बाद समझ में आया कि उनके दिमाग में संयुक्त पंजाब का पुराना नक्‍शा था, जिसका एक अहम शहरी केंद्र शायद रोहतक भी रहा होगा। जिया उल हक के पतन से पहले दसियों हजार लोगों की रैली में बुलंद आवाज में फैज का वो अविस्मरणीय तराना ‘हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे’ की अदभुत प्रस्तुति करने वाली प्रख्यात पाकिस्तानी गायिका इकबाल बानो मूलतः रोहतक की ही रहने वाली थीं। खैर, हम लोग कुछ देर उनके साथ बैठे और उन्हें बाहर टैक्सी तक छोड़ा। बाहर जो विदेशी मूल की महिला उनका इंतजार कर रही थीं शायद उनकी बीवी एलिस ही रही होंगी। अफसोस है कि फैज साहब से फिर कभी मुलाकात नहीं हो पायी और उन्हें रोहतक लाने का हमारा ख्वाब, जिसमें शायद उनका भी कोई ख्वाब छिपा था, अधूरा ही रह गया।

इस बात पर जब गौर करते हैं कि क्यों हमारे वक्त में फैज की उपस्थिति दिनोंदिन इतनी प्रबल, इतनी वास्तविक और इतनी अनिवार्य होती चली गयी है, तो सबसे पहले यही खयाल आता है कि उनकी शायरी हमारे इस बैचेनी भरे ऐतिहासिक दौर में न्याय के कठिन संघर्ष में उलझी ताकतों के भावनात्मक और नैतिक उद्वेगों को, उनकी व्याकुलता और आंतरिक विक्षोभ को, अपमान और पराजय के बीच भी उनकी उद्दीप्त आत्मगरिमा, अकूत धैर्य, साहस और सुंदरता को बेमिसाल ढंग से उदघाटित करती है, सचाई और पूरेपन के साथ। यही एक चीज है जो फैज को फैज बनाती है और उन्हें हमारी ‘आत्मा का मित्र’ बना देती है।

मीर और गालिब के बाद उर्दू जुबान में शायद फैज हमारी स्मृति में सबसे गहरे उतरने वाले शायरों में हैं। पिछली तीन शताब्दी में दूसरी भारतीय भाषाओं की कविता में भी इन तीनों जितनी पुख्तगी कितने कवियों में मिलेगी, कहना कठिन है। इसकी वजह जो समझ में आती है, वो ये कि ये तीनों कवि गहरे अर्थों में अपने-अपने वक्तों की भीषण उथल-पुथल की उपज हैं। यह उथल-पुथल कोरा ‘ऐतिहासिक संदर्भ’ ही नहीं है, यह इनके भीतर से, इनके निजी जीवन और दिल-दिमाग के बीचों-बीच से इन्हें चल-विचल करते हुए कुछ इस तरह से गुजरी है कि इनके व्यक्तित्वों की अंदरूनी बनावट में रच-बस गयी है। इससे भी ज्यादा अहम यह है कि तीनों अपने-अपने ढंग से घोर अवमूल्यनकारी, अपमानजनक और हृदयहीन परिस्थितियों में मनुष्य की गरिमा की प्रतिष्ठा करते हैं; भीषण आंतरिक यातना और विक्षोभ से गुजर कर इसकी पूरी कीमत चुकाते हैं, लेकिन इसका पूरा दावा रखते हैं। इस तरह तीनों ही मनुष्य को तुच्छ बनाने वाली और कुचलने वाली परिस्थिति को मानने से इनकार करते हैं। यही इनका प्रतिरोध है। यह प्रतिरोध फकत इनके अपने सचेत चुनाव या पक्षधरता की वजह से पैदा हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। यह इनके लिए लगभग एक ‘बुलफाइट’ में उलझे, घिरे और आत्मरक्षा की कोशिश में लगे हुए शख्‍स की मजबूरी की तरह निर्विकल्प और अनिवार्य था।

दिलचस्प तथ्य यह है कि तीनों गजल के शायर हैं। गजल एक किस्म का ‘लिरिक’ ही मान लिया गया है (हालांकि यह धारणा पूरी तरह सही नहीं है)। लेकिन इन्होंने गजल के आत्मपरक ढांचे में एक ‘क्लासिकी’ अंदाज पैदा किया। यह क्लासिकी किस्म की महाकाव्यात्मकता ‘फिनोमिनल’ कोण पैदा करने वाली उस विद्युत्धर्मिता और बुनियादी नजर की मांग करती है, जो महान त्रासदियों में हमें अक्सर दिखाई देती है (मिर्जा गालिब के यहां शायद यह चीज सबसे ज्यादा है)। इस खूबी के बाद गजल सिर्फ एक आत्मपरक उच्छ्वास या कोरा ‘लिरिक’ नहीं रह जाती। वह चाहे एहसास के पर्दे पर ही सही, अपने युग के महानाटक की अंदरूनी कशमकश के जहां-तहां कौंदने वाले अक्स फेंकती चलती है।

खुद फैज ने गजल के काव्यरूप की इस विलक्षणता और चमत्कारिक लचीलेपन के बारे में कहीं लिखा है कि प्रतीक-व्यवस्था के सीमित प्रारूपों और एक रिवायत में बंधी-बंधायी पदावली और भंगिमाओं के दायरों के अंदर गजल कैसे नये-नये अर्थ और एक साथ अनेकस्तरीय अर्थछटाएं पैदा करती और खोलती है और नये अवकाश रच लेती है। कैसे इसमें अर्थ की नयी अनुगूंजें पैदा होती हैं और सुनाई देती हैं। फैज ने यह भी बताया है कि शायद इसीलिए यह नाजुक काव्यरूप उठाईगीरी, फरेब और तरह-तरह के दुरुपयोग के लिए भी ज्यादा खुला हुआ है। एक जैसी लगने वाली भंगिमाओं और पदावली की वजह से अच्छी गजल और खराब गजल के बीच फर्क की तमीज पैदा करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है।

कुल मिलाकर यह कि मीर, गालिब और फैज इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि वे अपनी शायरी के जरिये न सिर्फ अपने निजी एहसास की बल्कि अपने-अपने बदलते वक्तों की तर्जुमानी करते हैं और उनकी नुमाइंदगी करने वाली प्रामाणिक आवाज बन जाते हैं। मानव स्थितियों की इसी बुनियादी और अस्तित्वमूलक पकड़ की वजह से उनकी अनुगूंजें उनके वक्तों के बाहर भी जब-तब सुनाई देती हैं।

मीर का जमाना एक बस्ती के उखड़ने का जमाना है (‘कैसी-कैसी सोहबतें उखड़ गयीं!’)। अंतःस्फोटों के बीच अपने ही मलबे में धंसते ह्रासग्रस्त सामंतवाद के उन दिनों में तमाम लूटपाट, अफरा-तफरी और बदहवास आपाधापी के बीच शाही अभिजात वर्ग के एक नुमाइंदे के तौर पर मीर (किसी हद तक अपने उदार सूफियाना मिजाज की वजह से भी) अपने युग की जलालत और क्रूरता के तीखे अहसास से गुजरते हैं। उनकी शोकमग्न आत्मा इस हानि का बोझ उठाती है और इसे बताती है। यह भी एक प्रत्याख्यान ही है। अगली सदी में, औपनिवेशिक विजय के युग में, इसी पिटे पिटाये शाही आभिजात्य के आखि़री अवशेष की तरह मिर्जा गालिब एक ज्यादा विडंबनामय जमीन पर खड़े हुए इसी तरह की आत्मपीड़ा, लांछना, नैतिकत्रास और sense of loss से गुजरते हैं और तुच्छताओं में घिर कर घिसटते अपने अस्तित्व के साथ मनुष्य की उद्दीप्त आत्मगरिमा की लौ को बचाते और प्रतिभासित करते चलते हैं।

फैज का वक्त और फैज का जीवन कतई अलग था। उनका रंगमंच और उस रंगमंच के किरदार अलग थे। कुल मिलाकर फैज का युग इतिहास की ऊर्ध्वगति और भविष्यवादी प्रेरणाओं की क्रियाशीलता का युग है। फिर भी फैज का आयुष्यक्रम कभी-कभी गालिब के विरोधाभासी जीवन की याद दिलाता है।

पैतृक रूप से एक भूमिहीन परिवार में जन्मे फैज के पिता ने भी अपनी जिंदगी की शुरुआत चरवाहे और कुली की तरह की थी, लेकिन किसी संयोग से उनके दिन फिरे और वे नाटकीय ढंग से अफगानिस्तान के बादशाह के यहां ऊंचे नौकरशाह बन गये। फैज के ही लफ्जों में उन्होंने काफी ‘रंगीन’ जीवन बिताया। फिर एक दिन सांप-सीढी के इस खेल में वापिस अपनी जगह पहुंच गये। मामूली देहाती मां के बेटे फैज के हिस्से में ज्यादा से ज्यादा पिता के रुतबे की ‘जली हुई रस्सी’ के कुछ बल ही आये होंगे।

प्रथम महायुद्ध के बाद साम्राज्यवाद विरोध की उत्ताल तरंगों से आंदोलित दुनिया में फैज ने होश संभाला। उनका बचपन और किशोरावस्था सोवियत क्रांति की विजय और असहयोग और खिलाफत आंदोलनों की हलचलों के साक्षी बने और राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम के लोकव्यापीकरण के गहरे प्रभावों और ऊर्जाओं को जज्ब करते हुए गुजरे। 1930 के ‘ग्रेट डिप्रेशन’ का अपने संदर्भ में फैज ने खासतौर पर जिक्र किया है। वे तब 20-21 साल के नौजवान थे। इस सर्वग्रासी मंदी ने जहां एक तरफ उनके अपने परिवार को भुखमरी के कगार पर पहुंचा दिया और उनके सामने जीवनयापन का प्रश्‍न उपस्थित किया, वहीं दुनिया में इसने फासीवाद के उभार के लिए ईंधन का काम किया। देश में आजादी की दिनों-दिन तेज होती जंग और योरप में युद्ध के खिलाफ और अमन के हक में उठी प्रबल हिलोर के गहरे असर में फैज इन्हीं दिनों आये। इसी बीच कम्युनिस्ट आंदोलन और मार्क्सवाद से भी उनका रिश्‍ता जुड़ा। यह फैज के आत्मनिरूपण के महत्वपूर्ण वर्ष थे। भारत में प्रगतिशील साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन और प्रगतिशील लेखक संघ की प्रतिष्ठा करने वाली अग्रणी शख्‍सियतों में से एक फैज भी थे। इस शुरुआती दौर की प्रेरणा, लक्ष्य और स्वप्न ही फैज के अंतर्व्यक्तित्व की धुरी बन गये। फैज की शायरी इस बात की गवाही देती है कि ये चीजें उनसे कभी दूर नहीं हुईं और उनके लिए कभी झूठी नहीं पडीं। इनके स्रोत उनके यहां कभी सूखे नहीं, कठिन से कठिन वक्त में भी नहीं।

फैज का खुद का जीवन ज्यादा जटिल था। द्वितीय महायुद्ध के दौरान जब साम्राज्यवादी युद्ध ‘लोक युद्ध’ में बदला तो फैज कॉलेज की लैक्चररशिप छोड़ कर सेना में भर्ती हो गये। बाहर ब्रिटिश आधिपत्य के खिलाफ ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ तेज हो रहा था और सेना के अंदर फैज एक नाजुक संतुलन साधते हुए सेना को फासीवाद विरोधी युद्ध के लिए तैयार करने की मुश्किल उठा रहे थे। युद्ध के बाद वे सेना से बाहर आ गये और 1947 की जनवरी में ही ‘पाकिस्तान टाइम्स’ के संपादक हो गये। बंटवारे के बाद वे पाकिस्तान ही में रह गये और दो ही तीन साल की पत्रकारिता और मजदूर आंदोलन के संगठन के बाद राजद्रोह के आरोप के साथ ‘रावलपिंडी षड्यंत्र केस’ में धर लिये गये। चार साल तक ‘तन्‍हाई’ समेत उन्होंने जेल जीवन की तमाम यंत्रणाएं सहीं। दो-तीन साल बाद कुछ समय के लिए फिर से पाकिस्तान में मार्षल लॉ के बाद की अंधी धर-पकड़ में आ गये। एक जज की मेहरबानी से छूट कर आये तो अखबार जब्त हो चुका था। उसके बाद उन्होंने लाहौर में ‘आर्ट्स कॉउंसिल’ की स्थापना की, मास्को और लंदन में कुछ समय रहे और आठ साल दोस्तों की मेहरबानी से कराची में काटे। 71 के बाद के दिनों में जब मिलिट्री षासन कुछ समय के लिए हटा तो (भुट्टो के कार्यकाल में) पुनः उन्हें कला-संस्कृति के कुछ प्रतिष्ठान खड़ा करने का मौका मिला लेकिन कुछ ही दिनों में फिर तख्तापलट हुआ, जिया उल-हक की सैनिक तानाशाही लागू हो गयी। इसके बाद वे चार साल तक ‘अफ्रो-एशियाई राइटर्स एसोसिएशन’ और उसकी पत्रिका ‘लोटस’ को संभालने बेरूत चले आये।

फैज की शायरी का ग्राफ भी दिलचस्प है। 1941 में जब उनका पहला संकलन ‘नक्‍शे फरियादी’ प्रकाशित हुआ तो उसमें उनके अंतर्जगत के मानचित्र की शुरुआती निशानदेही हो गयी। इस संग्रह में उनकी 1928 के बाद की प्रारंभिक रचनाओं से लेकर, प्रगतिशील आंदोलन की प्रेरणाओं से उनके रिश्‍ता बनाने तक की विकास यात्रा संचित है। सद्यजात उच्छ्वसित रूमानी संवेगों की शुरुआती बेकली और तीव्रता इनमें से पहले दौर की अनेक रचनाओं की संचालिका शक्ति है, जो ज्यादातर निजी किस्म की है और तेजी से चढ़ती और गिरती है। इनमें लगता है कि कवि की एक उम्र है और ‘बाहर’ अभी ज्यादातर बाहर ही है, ‘अंदर’ नहीं आया है। निजी अभी तक निजी ही बना हुआ है। हालांकि अपने दौर की मुख्य दिशा के मुताबिक कवि ने बाहर की दुनिया की कठोर हकीकत और नैतिक तकाजों से अपने भाव-संसार का मेल करना शुरू कर दिया है। लेकिन इस प्रक्रिया में कवि को खुद को बार-बार समझाना बुझाना पड़ता है “मेरा दिल गमगीं है तो क्या, गमगीं ये दुनिया है सारी” और “ये दुख तेरा है न मेरा, हम सब की जागीर है प्यारी” इसलिए “क्यूं न जहां का गम अपना लें, बाद में सब तदबीरें सोचें”। एक तरफ ‘अपनाने’ की यह जद्दोजहद चलती है तो दूसरी तरफ एक और ही निजी उधेड़बुन चलती रहती है, जो कभी भी कह उठती है, “हो चुका खत्म अहदे-हिज्रो-विसाल जिंदगी में मजा नहीं बाकी” या “अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुकफ्फल कर लो, अब यहां कोई नहीं, कोई नहीं आएगा”।

‘नक्‍शे फरियादी’ में ही फैज की बेहद लोकप्रिय नज्म “मुझसे पहली सी मुहब्बत मिरे महबूब न मांग” संकलित है। ये नज्म साहिर की नज्म ‘ताजमहल’ से ज्यादा अच्छी है और पंत की “बाले तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूं लोचन, भूल अभी से इस जग को” जैसी खराब कविता से ज्यादा सच्ची और प्रामाणिक है। अंततः यह नज्म प्रगतिशील आंदोलन की तत्कालीन मुख्यधारा की उन ढेर सारी रचनाओं के नमूने में ही ढली हुई है, जिनमें कई बार भावनात्मक अनुरोध अपनी जांच किये बगैर अति नाटक की मदद से और नैतिकीकरण की युक्ति का सहारा लेकर सहानुभूति का नया ढांचा खड़ा करना चाहते हैं और “न्याय-चेतना” के अनुरूप स्थित होना चाहते हैं। ‘नक्‍शे फरियादी’ में ही फैज ने एक नये कवि की इस स्वाभाविक लड़खड़ाहट को पार कर लिया था। “बोल के लब आजाद है तेरे” जैसे तराने या “दोनों जहान तेरी मुहब्बत में हार के” जैसी मर्मस्पर्शी गजलें इसी संकलन में शामिल थीं।
‘नक्‍शे फरियादी’ की एक गजल में फैज का यह शेर है…

फैज तकमीले गम भी हो न सकी
इश्‍क को आजमा के देख लिया

लेकिन हम जानते हैं कि इश्‍क की मुश्किल आजमाइश अभी शुरू ही हुई थी और ताजिंदगी जारी रही। इसे अभी कई बीहड़ रास्तों से गुजरना था। तकमीले गम भी खूब हुई लेकिन फिर भी कम ही ठहरी।

आजादी के बाद राष्ट्रीय आंदोलन के बिखराव के वर्षों में, खासकर 50 के दशक में प्रगतिशील आंदोलन की स्वतः स्फूर्त ऊर्जा खत्म होने लगी और धीरे-धीरे कम से कम एक बार पूरा आंदोलन ही बिखर कर विसर्जित हो गया। “आखिरी शब के हमसफर” अपना-अपना सफर खत्म करके सुस्ताने के अपने ठिकाने ढूंढ़ रहे थे। कोई किसी किनारे लगा, कोई किसी और किनारे। धीरे-धीरे अच्छी खासी तादाद में लोग प्रलोभनों या पराये वैचारिक दबावों और प्रभावों में आये और खामोशी से कहीं और चले गये। उर्दू-हिंदी के कितने ही तरक्कीपसंद, ‘इप्टा’ और ‘पृथ्वी थियेटर्स’ की कितनी ही प्रतिभाएं जो कभी इस तहरीक का परचम उठाये गांवों-कस्बों की खाक छानते फिरते थे, एक दूसरी ही दुनिया में जा बसे। न जाने कितने कलाकार संस्कृति के व्यावसायिक ढांचों में जज्ब हो गये या फिर फिल्म उद्योग के विषाल उदर में ठीक-ठीक समा गये। क्रांति का खयाल अब कोई खास खलल पैदा न करता था। इन प्रतिभाओं ने इन नयी जगहों को भी कुछ वक्त के लिए अपनी जल्वागरी से रौशन जरूर किया, लेकिन एक आंदोलन जिसकी जड़ें मामूली लोगों की ठोस जिंदगी में, उनके दुखदर्द में, उनके सपनों और दैनिक संघर्षों में थीं, एकबारगी खत्म हो गया।

लेकिन फैज साहब का मामला कुछ अलग था। उनका दर्दभरा लंबा और मुश्किल सफर अभी बचा हुआ था जिसे उन्हें लगभग अकेले ही तय करना था। अलग पाकिस्तान के खयाल को फैज ने कुबूल कर लिया था और जनवरी ’47 में ही ‘पाकिस्तान टाइम्स’ का संपादन करने लाहौर आ चुके थे। हालांकि अगस्त 1947 में फैज लिख रहे थे, “ये दाग-दाग उजाला ये शबगजीदा सहर, वो इंतिजार था जिसका ये वो सहर तो नहीं”। लेकिन शायद तब उन्हें भी इस बात का इल्म न रहा होगा कि आने वाले दिन इस कदर काले होंगे। फैज की जिंदगी का एक बहुत ही अहम और पेचीदा पहलू यह है कि बंटवारे के बाद वे पाकिस्तान ही में रहे। लिहाजा आजादी की वे खुशफहमियां और झूठी तसल्लियां उनके हिस्से में नहीं आयी थीं, जो प्रगतिशील आंदोलन से निकले उनके किसी जमाने के संगी-साथियों को हिंदुस्तान में आसानी से नसीब थीं। ज्यादातर वक्त उन्होंने पाकिस्तान में जनवाद को कुचल कर रखने वाले अमरीकापरस्त जालिम भूस्वामी-सैनिक गठजोड़ की दमघोंट सुरंगों में घोर आत्मविच्छिन्नता से गुजरते हुए या एक निर्वासित की जिंदगी जीते हुए बिताया। आजादी उनके लिए अभी भी एक सपना थी। सेना में शामिल होकर फासीवाद के खिलाफ लड़ने वाले फैज के लिए फासिज्म लगभग तमाम उम्र एक जिंदा हकीकत रहा, लेकिन बड़ी बात यह थी कि घोर अलगाव और अकेलेपन की इन मुश्किल परिस्थितियों में फैज ने अपने निरूपण काल की लौ की हिफाजत अपनी आबरू की तरह की, उसे न सिर्फ जिलाये रक्खा बल्कि इस पूरे दौर में उनके अंतःकरण में उसकी दीप्ति और भी ज्यादा स्वच्छ, उदग्र और प्राणवंत हो गयी। “गुरुरे इश्‍क का बांकपन” कम न हुआ, उल्टा बढ़ता गया। यह नहीं भूलना चाहिए कि न्याय के लिए लड़ने वाले लोग वर्गारोहण और बुर्ज्वा सुखभ्रांतियों की भूलभुलैयों में ही गुम नहीं होते, दमनकारी परिस्थितियों में नृशंसीकरण और हताशा के सामने भी अलग-थलग और लाचार होकर टूट जाते हैं और समर्पण कर देते हैं। खासकर तब, जबकि परिदृश्‍य में संगठित प्रतिरोध के कोई विश्‍वसनीय लक्षण दिखाई न देते हों। इसलिए फैज को ही इस बात का पूरा श्रेय दिया जाना चाहिए कि वे इश्‍क के इस कठिन इम्तहान में सुर्खरू हो कर निकले।

‘नक्‍शे फरियादी’ के बाद फैज की शायरी को जैसे अपना आपा मिल गया। कवि जैसे अपने असल मैदान में आ पहुंचा हो। जेल की जिंदगी ने मंच को ठीक-ठीक बांध दिया और उन्हें अपने वक्त के नाटक के बीचोंबीच उस केंद्रीय जगह ला खड़ा किया जहां से वे अपने भीषण आंतरिक संघर्ष के जरिये भी बीसवीं सदी के अल्पविकसित नवस्वतंत्र देशों के मुख्य संघर्ष की रूपरेखा को संकेतित कर सकते थे और आजादी और जनवाद के ज्वलंत प्रश्‍न की त्रासद विडंबना को ज्यादा से ज्यादा उदघाटित कर सकते थे।

‘दस्ते-सबा’ (1952) और ‘जिंदांनामा’ (1956) और उसके बाद ‘दस्त-ए-तह-ए-संग’ (1964) में फैज की शायरी की तमाम खूबियां एक रचनात्मक संश्‍लेषण में ढल कर अपनी मौलिकता और उत्कर्ष के साथ उभर कर आती हैं और अपनी पूरी आजमाइश करते हुए उनके कवि व्यक्तित्व को तमाम पहलुओं को समग्रता में सामने लाती हैं। यह चीज बाद तक आने वाले दूसरे संग्रहों में भी हम देखते हैं।

इस पूरे लंबे दौर को एक साथ देखें तो फैज की ताकत इस बात में छिपी लगती है कि वे न्याय के बीहड़ संघर्ष की सच्चाई, सुंदरता और जटिलता को पूरी गहराई से समझते हैं, उसका सरलीकरण नहीं करते। इस इश्‍क के गुरूर, इसकी आबरू और शान को वे दिल से जानते और समझते हैं, इसके तमाम बोझ और जानलेवा तकाजों के साथ। इस दर्द का सौदा उन्होंने अपनी इन्सानी गरिमा की हिफाजत की ज्यादा गहरी खुशी के लिए किया है, यह जानते हुए कि इस लड़ाई में कामयाबी की या मंजिल पा लेने की कोई गारंटी नहीं। इसमें बार-बार की नाकामी कोई खास मानी नहीं रखती यह मश्‍क ही खुद में कामयाब है। फैज ही कह सकते थे ‘फैज की राह सर-ब-सर मंजिल, हम जहां पहुंचे कामयाब आये’। इस कठिन रास्ते का तमाम अधूरापन इसके तमाम पेच-ओ-खम के साथ उन्हें मंजूर है। बेगानगी, उदासी, अकेलेपन, विकलता और बेबसी के भयानक रेगिस्तान को वे जिस बड़प्पन, धीरज और साहस से पार करते हैं और जिस संलग्नता और आत्मगर्व के साथ अपने स्वप्न की स्वच्छता और अपनी आशिकी की उत्कटता को हर कीमत पर बचाना चाहते हैं, वह फैज के कवि व्यक्तित्व की पुख्तगी की ही एक मिसाल है।

अपनी एक नज्म में फैज ने कवि के अंतःकरण को “अत्याचार और न्याय का रणक्षेत्र” (‘तबअ-ए-शायर है जंगाह-ए-अद्लोसितम’) कहा है। कहना गैरजरूरी है कि सबसे ज्यादा ये फैज के अपने भावजगत का ही बखान है। प्रामाणिक ढंग से वही कह सकते थे “दुख भरी खल्क का दुख भरा दिल हैं हम”। हम आगे की उनकी तमाम शायरी में ‘अत्याचार’ और ‘न्याय’ के इस भीषण संग्राम की बदलती शक्‍लों के साथ कवि की दुर्द्धर्षता की अनेक सुंदर और शानदार छवियां देखते हैं। बार-बार हार कर भी इस ‘बदी हुई बाजी’ में कवि हारता नहीं; अपने शोक और एकाकीपन को एक ‘ट्रैजिक हीरो’ की शान, आत्मगरिमा और बड़प्पन के साथ धारण करता है, अपनी सजा को कुबूल करता है और समर्पण से इनकार करता है। दरअसल फैज एक ऐसे कवि हैं, जिन्होंने मंसूर और फरहाद की पुरानी परंपराओं से लेकर कुर्बानियों से भरी प्रतिरोध की तमाम साम्राज्यवाद विरोधी, फासीवाद विरोधी मुक्तिकामी आधुनिक परंपराओं को आत्मसात किया और उनकी कीमत समझते और चुकाते हुए उनके संवाहक बने। हम जानते है कि एशिया, अफ्रीका, लातीनी अमरीका और तमाम दुनिया के मुक्तिकामी जनगण के संघर्षों के साथ कैसे उनके दिल की धड़कनें पैबस्त थीं। वे सबसे अच्छी तरह यह जानते थे कि अंदर से यह एक ही लड़ाई है। यह बात अलग है कि अपने इस सफर में फैज को कभी यह लगा कि “उठेगा जब जम्म-ए-सरफरोशां/पड़ेंगे दार-ओ-रसन के लाले/कोई न होगा के जो बचा ले” तो कभी ऐसा भी वक्त रहा और ज्यादातर रहा, कि लगा, “न रहा जुनूने-रुखे-वफा/ये रसन ये दार करोगे क्या”। लेकिन फैज इन सब स्थितियों के बीच अपनी खुदी को बचाना जानते हैं। उनकी खूबसूरत नज्म “आज बाजार में पा-ब-जौलां चलो” जालिमों के निजाम में अपने लांछित और अपमानित प्रेम की सुंदरता, शान और आत्मगर्व को जिस तरह पूरे कद में सामने लाती है और उसका जश्‍न मनाती है, उससे फैज की आशिकी की गहराई और नैतिक तड़प का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। यह कविता अत्याचार और न्याय के बीच के रणक्षेत्र को उसी तरह एक ऐतिहासिक थिएटर में बदलती है, जैसे मुक्तिबोध की कविता “भूलगलती”।

फैज सच्चे वतनपरस्त और सच्चे अंतर्राष्ट्रीयतावादी थे। दुनिया भर के जनसंघर्षों के साथ एकजुटता व्यक्त करके अंतर्राष्ट्रीयतावादी हो जाना आसान है लेकिन अंतर्राष्ट्रीयतावाद की असल परख तब होती है, जब आपका मुल्क एक अविवेकपूर्ण युद्ध में झोंक दिया जाता है।

यह उल्लेखनीय है कि 1965 की भारत के साथ अनावश्‍यक जंग का और 1971 में बांग्लादेश के आधिपत्य के लिए फौजी हुक्मरानों के द्वारा की गयी कत्लोगारत का फैज ने अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रतिकार किया और अपने मुल्क की अंधराष्ट्रवादी धारा का विरोध मोल लिया जबकि 1962 में चीन के साथ भारत के युद्ध के हक में प्रगतिशील आंदोलन के उनके हिंदुस्तानी दोस्तों का एक अच्छा-खासा तबका अंधराष्ट्रवादी मुहिम का शिकार हुआ।

एक बात जो खासतौर पर समझने की है, वो ये कि फैज का खुद के सरोकारों से रिश्‍ता कोरा वैचारिक, नैतिक या कोई रस्मी रिश्‍ता नहीं है। वे उनके खुद के सरोकार हैं, खु़द कमाये हुए, ‘ऑर्गेनिक’ और अपरिहार्य। इनमें उनके वास्तविक और निजी ‘स्टेक्स’ थे। सामाजिक सरोकार और निजी सरोकारों में, ऐतिहासिक कार्यसूची और निजी कार्यसूची में उनके लिए कोई अंतर न था। इसीलिए ‘रेहटरिक’ का सहारा लेने की जरूरत उन्हें कभी महसूस नहीं हुई जबकि उनके निरूपण काल में इसका चलन आम था। एक अमूर्त क्रांतिकारी रूमान, अमूर्त देशप्रेम या अमूर्त आवारगी और दीवानगी की अनुष्ठानिक भंगिमाएं उकेरने के लिए यह काफी मुफीद है। ‘रेहटरिक’ कई बार एक कर्मकांड के खोल या परिधान की तरह होता है, जिसे पहन कर दिए हुए ‘पार्ट’ को अदा करने की सहूलियत काफी मिल जाती है लेकिन उस कवि का काम कोरी ‘परफोरमेंस’ से कैसे चल सकता है, जिसका अपना अनुभव और बोध एक बाध्यकारी और निर्विकल्प अस्तित्वमूलक संघर्ष के जरिये पारिभाषित हो रहा हो और इसी को चलाने के लिए उसे भाषा की जरूरत पड़ती हो। फैज के शब्‍द अगर बजने के बजाय गूंजते हैं, सच्चे लगते हैं और दिल में उतरते हैं तो उसकी बड़ी वजह यही है कि वे असल की ताकत लेकर आते हैं। उनमें वही उत्कटता और मार्मिकता है जो फैज की अपनी जद्दोजहद में थी।

जिस चुनौती से फैज का सामना था, वह आज और भी विकराल हो कर सामने है। उनका सपना चाहे ऊपर-ऊपर टूट गया लगता हो, इतिहास के गर्भ में फिर से स्पंदित और जीवित है। इस समय का संघर्ष ज्यादा भीषण और जटिल है, लेकिन उसी अनुपात में प्रतिरोध की संभावनाएं ज्यादा सघन, व्यापक और मूलगामी हुई हैं। इस लज्जित और पराजित युग में भी तमाम थकन, उदासी, विछोह और व्यथापूर्ण अकेलेपन के बीच फैज का अंतःसंघर्ष, उनका जीवट, धैर्य, उनकी हठी पक्षधरता और उनका अप्रतिहत प्रतिरोध हमारी स्मृति में अपनी सच्चाई और प्राणमयता के साथ तब तक जीवित है, जब तक यह लड़ाई जारी है। कठिन आशिकी की फैज की यह परंपरा आने वाले लंबे दौर में हमारे साथ चलेगी।

(मनमोहन। हिन्दी क्षेत्र में नवजागरण की जो जरूरत है, उसको शिद्दत से महसूस करने वाले विचारकों में मनमोहन का नाम बहुत ऊपर है। 1975 की इमरजेंसी के दौर में बहुत सारे साहित्यकार, लेखक और पत्रकार इंदिरा गांधी और संजय गांधी की जय जयकार में लगे थे लेकिन बुद्धिजीवियों का एक वर्ग तानाशाही के खिलाफ लामबंद था। मनमोहन उन दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एमए के छात्र थे। उनकी गिनती उस दौर के जनवादी कवियों में होती थी। उस काले दौर में भी जिन बुद्धिजीवियों ने हर मोड़ पर इंदिरा गांधी के चापलूसों को चुनौती दी थी, मनमोहन और उनके साथी उस वर्ग के अगले दस्ते में शामिल थे। मनमोहन की कविताएं “राजा का बाजा”, “जिल्लत की रोटी” और “चतुर लाल का हुक्का” हिंदी साहित्य में ऊंचे मुकाम पर मानी जाती हैं। आजकल रोहतक विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में काम करते हैं और बायें बाजू की हर तहरीक में शामिल होते हैं। उनसे manmohanshubha@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)