देखते रहो
देखते रहो
अभी तो कुछ नहीं दिखाया गया
देखना, अभी क्या क्या दिखाया जाता है
तुम्हें कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं है
तुम तो बस देखते रहो
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ग़लती ने राहत की साँस ली
उन्होंने झटपट कहा
हम अपनी ग़लती मानते हैं
ग़लती मनवाने वाले खुश हुए
की आख़िर उन्होंने ग़लती मनवा कर ही छोड़ी
उधर ग़लती ने राहत की साँस ली
की अभी उसे पहचाना नहीं गया
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एक इच्छा गीत
जीती रहें संध्याएँ
जो खामोश उतरें
गरीब बालक के मन पर
जीते रहें सफीने
वो जो हर दिशा में आयें आसमानों में
बिन बुलाये रोज़-बा-रोज़ मालामाल
और सूने तटों पर लग जायें
जीता रहे
पुरानी गलियों के झुरमुट में भटकते
अकस्मात जो किसी छोर पर दिख जाए
कठिन समय का मित्र
खादेदी गई रुंधी हुई
कुचली हुई बस्तियों में
जगे रहें दैनिक उत्पात
भयानक और गूढ़तम अंतर्कलह जगे रहें
बार-बार तडपे जहाँ नए ख्यालों की बिजली
खोले आँख जहाँ साफ सुथरे अच्छे जीवन की
पवित्र इच्छा नवजात
पहली बार
और जो छा जाए घटा की तरह
मन की मलिनता पर
गहन मंतव्य बार-बार मुंह दिखलायें
बड़ा रचने की इच्छा पैदा हो
और दूर तक देखने की योग्यता
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यकीन
एक दिन किया जाएगा हिसाब
जो कभी रखा नहीं गया
हिसाब
एक दिन सामने आएगा
जो बीच में ही चले गए
और अपनी कह नहीं सके
आयेंगे और
अपनी पूरी कहेंगे
जो लुप्त हो गया अधुरा नक्शा
फ़िर खोजा जाएगा
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इच्छा
एक ऐसी सवच्छ सुबह मैं जागु
जब सब कुछ याद रह जाए
और बहुत कुछ भूल जाए
जो फालतू है
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उसकी थकान
उस स्त्री की थकान थी
की वह हंस कर रह जाती थी
जबकि वे समझते थे
की अंततः उसने उन्हें क्षमा कर दिया है
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शर्मनाक समय
कैसा शर्मनाक समय जीवित मित्र मिलता है
तो उससे ज्यादा उसके स्मृति
उपस्थित रहती है
और उस समृति के प्रति
बची खुची कृतज्ञता
या कभी कोई मिलता है
अपने साथ ख़ुद से लम्बी
अपनी आगामी छाया लिए
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मनमोहन १९६९ से कवितायें लिख रहें हैं। मनमोहन बेशक उन कवियों में हैं जो 'साहिबे-दीवान' बनने से पहले ही अपनी पीढी की प्रतिनिधि आवाज़ बन जाते हैं।
मनमोहन की कविता में वैचारिक और नैतिक आख्यान का एक अटूट सिलसिला है। उनके यहाँ वर्तमान जीवन या दैनिक अनुभव के किसी पहलू , किसी मामूली पीड़ा या नज़ारे के पीछे हमेशा हमारे समय की बड़ी कहानियों और बड़ी चिंताओं की झलक मिलती रही है। मनमोहन अपनी पीढी के सबसे ज्यादा चिंतामग्न, विचारशील और नैतिक रूप से अत्यन्त शिक्षित और सावधान कवि हैं। मनमोहन की कविया में एक 'गोपनीय आंसू' और एक 'कठिन निष्कर्ष' है। इन दो चीजो को समझना आज अपने समय में कविता और समाज के, राजनीती और विचार के और, अंततः रचना और आलोचना के रिश्ते को समझना है।
------------------------------- असद ज़ैदी
मनमोहन की और कवितायें अगली पोस्ट में ------
2 comments:
bahut achhi kavitayen hai bhai. pichhli posts bhi achhi hain
एक ऐसी सवच्छ सुबह मैं जागु
जब सब कुछ याद रह जाए
और बहुत कुछ भूल जाए
जो फालतू है ..behad khoobsurat
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