Sunday, July 5, 2009


कुनाल की एक कविता केशव के लिए

आज, तुम जहाँ खड़े हो....

अपने अतीत की गठरी खोलते....

कुछ न बोलते....

बस...ज़रा सा हंसते हुए....

कसते हुए फिर से अपनी कमर...

और ठानते हुए कि - शाम होने तक खंडहरों के उस पार पहुंचना है....

कि -सूख चुके सोते में फिर से झरने को बहना है....

तुम , फिर से अपनी कुदाल पैनी करते हो ,....

कुछ बुदबुदाते हो या कि यूं कह लूं -

कि चोट ज़रा तेज़ पड़े इसलिए कोई मन्त्र बांचते हो

यहाँ पहुँचते हुए कितने रास्ते तुम्हारे तलवों में समा गए....

तुम्हारी चाल ढोलक कि थाप में बदल गयी....

और तुम्हारे हाथ अभिनय करने लगे....

तुम्हारा मन अब भी वही गीत गुनगुनाता है जो तुम्हारा बचपन गाता था....

उस बचपन में तुम कितने बड़भागी रहे....

जो हमारी कथाओं में थे वो तुम्हारे साथी रहे....

मसलन....

खरगोश बकरी तोता कुत्ता मुर्गा....

और कच्ची दीवारें....

यकायक पानी में कोई पत्थर फेंकता है और तुम नींद से जागते हो....

खुद को महानगर में पाते हुए, सँभालते हुए....

कुछ देर चुप हो चुके तुम कहीं खो जाते हो....

गलत ठीक का दाना चुगते, मन को अपनी सांस में थाम लेते हो....

कोई याद तुम में सुकून का घूँट भरती है और तुम दौड़ कर बस में चढ़ जाते हो....

खुद को उसी याद के हवाले करके तुम सिर्फ बाहर झांकते हो,...

देखते कुछ भी नहीं....

आज तुम जहाँ खड़े हो....

कभी कभी खुद से दूर चले जाते हो....

मगर तुम्हारी दिलकश आवाज़....

तुम्हे फिर से लौटा लाती है....

तुम्हारे पास.... आज, तुम जहाँ खड़े हो....

अपने अतीत की गठरी खोलते....कुछ न बोलते....

बस...

ज़रा सा हंसते हुए.......

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