फैज़ की एक नज़्म

आज के नाम
आज के नाम
देखते रहो
देखते रहो
अभी तो कुछ नहीं दिखाया गया
देखना, अभी क्या क्या दिखाया जाता है
तुम्हें कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं है
तुम तो बस देखते रहो
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ग़लती ने राहत की साँस ली
उन्होंने झटपट कहा
हम अपनी ग़लती मानते हैं
ग़लती मनवाने वाले खुश हुए
की आख़िर उन्होंने ग़लती मनवा कर ही छोड़ी
उधर ग़लती ने राहत की साँस ली
की अभी उसे पहचाना नहीं गया
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एक इच्छा गीत
जीती रहें संध्याएँ
जो खामोश उतरें
गरीब बालक के मन पर
जीते रहें सफीने
वो जो हर दिशा में आयें आसमानों में
बिन बुलाये रोज़-बा-रोज़ मालामाल
और सूने तटों पर लग जायें
जीता रहे
पुरानी गलियों के झुरमुट में भटकते
अकस्मात जो किसी छोर पर दिख जाए
कठिन समय का मित्र
खादेदी गई रुंधी हुई
कुचली हुई बस्तियों में
जगे रहें दैनिक उत्पात
भयानक और गूढ़तम अंतर्कलह जगे रहें
बार-बार तडपे जहाँ नए ख्यालों की बिजली
खोले आँख जहाँ साफ सुथरे अच्छे जीवन की
पवित्र इच्छा नवजात
पहली बार
और जो छा जाए घटा की तरह
मन की मलिनता पर
गहन मंतव्य बार-बार मुंह दिखलायें
बड़ा रचने की इच्छा पैदा हो
और दूर तक देखने की योग्यता
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यकीन
एक दिन किया जाएगा हिसाब
जो कभी रखा नहीं गया
हिसाब
एक दिन सामने आएगा
जो बीच में ही चले गए
और अपनी कह नहीं सके
आयेंगे और
अपनी पूरी कहेंगे
जो लुप्त हो गया अधुरा नक्शा
फ़िर खोजा जाएगा
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इच्छा
एक ऐसी सवच्छ सुबह मैं जागु
जब सब कुछ याद रह जाए
और बहुत कुछ भूल जाए
जो फालतू है
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उसकी थकान
उस स्त्री की थकान थी
की वह हंस कर रह जाती थी
जबकि वे समझते थे
की अंततः उसने उन्हें क्षमा कर दिया है
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शर्मनाक समय
कैसा शर्मनाक समय जीवित मित्र मिलता है
तो उससे ज्यादा उसके स्मृति
उपस्थित रहती है
और उस समृति के प्रति
बची खुची कृतज्ञता
या कभी कोई मिलता है
अपने साथ ख़ुद से लम्बी
अपनी आगामी छाया लिए
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मनमोहन १९६९ से कवितायें लिख रहें हैं। मनमोहन बेशक उन कवियों में हैं जो 'साहिबे-दीवान' बनने से पहले ही अपनी पीढी की प्रतिनिधि आवाज़ बन जाते हैं।
मनमोहन की कविता में वैचारिक और नैतिक आख्यान का एक अटूट सिलसिला है। उनके यहाँ वर्तमान जीवन या दैनिक अनुभव के किसी पहलू , किसी मामूली पीड़ा या नज़ारे के पीछे हमेशा हमारे समय की बड़ी कहानियों और बड़ी चिंताओं की झलक मिलती रही है। मनमोहन अपनी पीढी के सबसे ज्यादा चिंतामग्न, विचारशील और नैतिक रूप से अत्यन्त शिक्षित और सावधान कवि हैं। मनमोहन की कविया में एक 'गोपनीय आंसू' और एक 'कठिन निष्कर्ष' है। इन दो चीजो को समझना आज अपने समय में कविता और समाज के, राजनीती और विचार के और, अंततः रचना और आलोचना के रिश्ते को समझना है।
------------------------------- असद ज़ैदी
मनमोहन की और कवितायें अगली पोस्ट में ------
(मुक्तिबोध की कवितायें - - - - - - - - - - - - - -
नरेश प्रेरणा की एक पुरानी कविता
मेरे शब्द
मेरे शब्दों में
सिर्फ़ नफरत नहीं है
सिर्फ़ प्यार भी
नहीं है
शारीरिक गुणवत्ता भी नहीं है
उनके शब्दों में
ऊँचे ऊँचे और
एक के बाद एक लगातार
दिखाई देने वाले
सपने हैं
हमें लगता है
हर रात एक नए युग
की शुरुआत होती है
हर तरफ सब कुछ नया
नई नीतियां
नई प्रणालियाँ
नए समझोते
बड़े प्यार से हर बड़ी समस्या से
बच के निकालने के ।
मेरे शब्दों में
नफरत है
समस्याओं के प्रति
क्रोध है
समस्याओं के दिन बा दिन बढ़ने पर
इंक़लाब का नारा बुलंद करते है
इन समस्याओं को दूर करने के लिए।
फैक्ट्रियों में काम करता
सड़कों पर कागज चुगता
और स्कूल जाते बच्चों को निहारता
हर बच्चा मेरे शब्दों की
ज़रूरत महसूस करता है
लगातार बढती उत्सुक्ताएं
समाज को समझने की
मेरे शब्दों में विद्यमान हैं।
लोगों को
समाज की वयवस्था
समझाने का मौका चाहने वाले
लाखों बेरोजगारों के
इरादे शब्दों में हैं
नौकरी लगे लोगों में
छटनी की समस्या
लगातार बढ़ रहा कम करने का समय
कभी भी नौकरी से निकलने की
सर पर लटकती तलवार
सभी समस्याओं को सुलझाने के लिए
संगठित न होने देने के सरकारी नीतियों
के खिलाफ ज़ोर डर रोष
मेरे शब्दों में।
उनके शब्दों का प्रचार प्रसार
किया जाता है
धर्म राजनीती
और पुरे मीडिया द्वारा
उनके शब्दों के पीछे
बड़ी ताक़त है
लोगों को लगता है वो कभी भी
ख़त्म न होंगे
हमेशा यूँ ही ठहाके मरते रहेंगे
लोगों को
कभी कभी एइसा भी लगता होगा
मेरे शब्द शअनिक है
और मेरे शब्दों के पीछे
बहुत कम ताक़त है?
मेरे शब्दों को अपनाने की ज़रूरत
हर अलग अलग जगह
बेहतर जीवन के लिए संगर्ष
में लगे लोग महसूस कर रहें हैं।
और मेरे शब्द
इस पुरी जनशक्ति को
संगठित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं
जिसमें आधुनिकता के खोखले
नीतियों और समझोतों को
जो हमारे मूल अधिकारों को
हमसे अलग रखने के लिए
बनाये गए हैं, को
तोड़ गिरना है।
अलग अलग जगहों से उठ कर
मेरे शब्द नए जीवन का निर्माण
करने में लगे हैं
वे जीवित रहेंगे
जब तक जीवन है
जन समूह है
और बेहतर जीवन के लिए इच्छा है
मेरे शब्द
और जन समूह
मिटा देंगे उन
शब्दों को
जो जन समूह को उनके
मूल अधिकारों ले अलग रखकर
जन समूह को तोड़कर
कमज़ोर कर
अपनी सत्ता बनाये रखते है
..................................................................... जतन से साभार, अंक १२
...............नरेश, सफ़दर की शहादत के ठीक बाद से हरयाणा में नाटक आन्दोलन को बनाने और आगे बढ़ने के लिए नेतृत्वकारी भूमिका निभा रहे हैं। वे हरयाणा ज्ञान विज्ञानं समिति के राज्य सचिव मंडल के सदस्य और राज्य के संस्कृतीत विंग के कन्वीनर हैं ।
.....उन्होंने ये कविता san ८६-८७ में लिखी थी.
शुभा की दो कवितायें
पेड़ों की उदासी
पेड़ों के पास ऐसी कोई भाषा नहीं थी
जिसके ज़रिये वे अपनी बात
इन्सानों तक पहुंचा सकें
शायद पेड़ बुरा मान गए किसी बात का
वे बीज कम उगाने लगे
और बीजों में उगने की इच्छा ख़त्म हो गई
बचे हुए पेड़ों की उदासी देखी जा सकती है
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हमारे समय में
हम महसूस करते रहते हैं
एक दूसरे की असहायता
हमारे समय में यही है
जनतंत्र का स्वरूप
कई तरह की स्वाधीनता है
हमारे पास
एक सूनी जगह है
जहाँ हम अपनी असहमति
व्यक्त कर सकते हैं
या जंगल की ओर निकल सकते हैं
आत्महत्या करते हुए हम
एक नोट भी छोड़ सकते हैं
या एक नरबलि पर चलते
उत्सव में नाक तक डूब सकते हैं
हम उन शब्दों में
एक दूसरे को तसल्ली दे सकते हैं
जिन शब्दों को
हमारा यकीन छोड़ गया है
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शुभा बेहद कम छपने वाली कवियत्री हैं। उनकी जो कविताएँ गाहे-बगाहे विभिन्न पत्रिकाओं में छपी हैं, उनमें स्त्री विमर्श बेहद ओथेन्टिक और मुखर रूप से सामने आया है। यहाँ दी जा रही कविताओं का स्वर थोड़ा भिन्न है। १९९२ और उसके बाद के हादसों से उपजी व्यथा की अनुगूंज भी इस स्वर में शामिल है