Tuesday, September 7, 2010


शुभा के जन्मदिन के मौके पर उनकी दो रचनाएं




एक बढ़ई काम करते हुए कई चीज़ों पर ध्यान नहीं देता मसलन लकड़ी चीरने की धुन, उसे चिकना बनाते समय बुरादों के लच्छों का आस-पास फूलों की तरह बिखरना, कीलें ठोकने के धीमे मद्धिम और तेज सुर, खुद आपने हाथों का फुर्तीला हर क्षण बदलता संचालन और कभी चिंतन में डूबी, कभी चुस्ती और जोश से लपकती, कभी लगन में डूबी और कभी काम के ढलान पर आख़िरी झंकार छोडती अपनी गति वह स्वयं नहीं देखता. वह खुद अपने में उतरते काष्ठ मूर्ति जैसे गहन सौन्दर्य को भी नहीं देखता, अपनी परखती जांचती निगाह और एक अमूर्त आकृति को लकड़ी में उतारने की कोशिश में अपने चेहरे पर छाई जटिल रेखाओं के जाल को भी वह नहीं देखता. वह केवल काम का संतोष पाता है और कामचलाऊ जीवन-यापन के साधन.
एक आदमी आता है और उसकी कृति ख़रीद लेता है. वह कृति के सौन्दर्य पर इतना मुग्ध है कि बढ़ई को नहीं देखता. वह कृति के उपभोग को लेकर आश्वस्त है. वह फिनिश्ड सौन्दर्य और निर्बाध उपयोग को ही पहचानता है. सौन्दर्य का होना उसके लिए अंतिम है. सौन्दर्य का `बनना` वह नहीं जानता. उसके रचनाकार को वह नहीं देखता क्योंकि वहाँ सौन्दर्य सुगम नहीं है, वहाँ अधूरापन और जटिलताएं हैं वहाँ एक गति है जिसका पीछा करने मात्र के लिए एक रचनात्मक श्रम जरूरी है. यह श्रम निर्बाध उपभोग के आड़े आता है, इसलिए सौन्दर्य के पुजारी बन चुके लोग पूर्ण, ठहरे हुए-हमेशा के लिए ठहरे हुए सौन्दर्य को देखते हैं. मनुष्य को नहीं, बढ़ई को नहीं. मनुष्य की उपेक्षा और मृत सौन्दर्य की पूजा आराम से साथ साथ चलते हैं. ज़ाहिर है अपने को न देखने वाले बढ़ई और केवल कृति को देखने वाले उपभोक्ता के बीच बड़ा सम्पूर्ण सामंजस्य होता है.
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हमारा काम

जो निजी परिवारों में होता था
वह हो रहा है अब
निजी एलबमों में
कभी कभी लगता है
सब पुराना ही है
बस उसका प्रदर्शन नया है

अब पता लगता है
ख़ून ख़राबे में हमारा यक़ीन
पहले भी था

बलात्कार के शास्त्र
हमने ही रचे थे
हमने ही बनाया था निरंकुशों को
ईश्वर
और फिर उसी ईश्वर की तरह
अंध विज्ञान भी हमने ही बनाया

अब हट चुका है
सभ्यता के चेहरे से हर पर्दा
नागरिक मनुष्य
जैसे हमने देखा था
सपने में

हमारे जेल और हमारे शिक्षा संसथान
हमारे घर और हमारी क़त्लगाहें
हमारे न्यायालय और हमारे चकले
खड़े हैं एक ही क़तार में

इस दृश्य को समझने में
बाधा डालते हैं हम ही

हम अकेले ही पहुँचना चाहते हैं
किसी स्वर्ग में
उन सभी को छोड़ते हुए
जिन्हें हम मित्र आदि कहते थे

ग़रीब गुरबा क़ी कौन कहें
हम अपनी आत्मा भी छोड़कर
स्वर्ग जाना चाहते हैं।
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गद्य का टुकड़ा असद ज़ैदी द्वारा सम्पादित `जलसा` से और कविता असद ज़ैदी द्वारा सम्पादित `दस बरस` से

Saturday, August 21, 2010


फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


निसार मैं तेरी गलियों के अए वतन, कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले

है अहल-ए-दिल के लिये अब ये नज़्म-ए-बस्त-ओ-कुशाद
कि संग-ओ-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद

बहोत हैं ज़ुल्म के दस्त-ए-बहाना-जू के लिये
जो चंद अहल-ए-जुनूँ तेरे नाम लेवा हैं
बने हैं अहल-ए-हवस मुद्दई भी, मुंसिफ़ भी
किसे वकील करें, किस से मुंसिफ़ी चाहें

मगर गुज़रनेवालों के दिन गुज़रते हैं
तेरे फ़िराक़ में यूँ सुबह-ओ-शाम करते हैं

बुझा जो रौज़न-ए-ज़िंदाँ तो दिल ये समझा है
कि तेरी मांग सितारों से भर गई होगी
चमक उठे हैं सलासिल तो हमने जाना है
कि अब सहर तेरे रुख़ पर बिखर गई होगी

ग़रज़ तसव्वुर-ए-शाम-ओ-सहर में जीते हैं
गिरफ़्त-ए-साया-ए-दिवार-ओ-दर में जीते हैं

यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई

इसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करते
तेरे फ़िराक़ में हम दिल बुरा नहीं करते

ग़र आज तुझसे जुदा हैं तो कल बहम होंगे
ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं
ग़र आज औज पे है ताल-ए-रक़ीब तो क्या
ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं

जो तुझसे अह्द-ए-वफ़ा उस्तवार रखते हैं
इलाज-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-निहार रखते हैं

Thursday, July 15, 2010


श्रद्धांजलि
जाने माने इतिहासकार डॉ सूरजभान नहीं रहे
१४ जुलाई को शाम लगभग सात बजे प्रोफसर सूरजभान का निधन हो गया वे पिछले कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे डॉ सूरजभान का जन्म एक मार्च 1931 को गांव आसोदा जिला झज्ज में हुआ था वे १९९१ में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से विभागध्यक्ष एवम डीन ऑफ़ इंडिक के पद से सेवानिवृत हुए प्रोफसर सूरजभान हरयाणा में पिछले बीस-पचीस साल से समाज सुधार के कार्यों में लगे हुए थे उन्होंने हरयाणा में सरस्वती और दृषद्वती के मैदान, सतलुज-यमुना के अंतराल क्षेत्र , सुध , मिताथल, राजा करण का टीला और बालू तथा गुजरात में लोथल और भागात्रोव में उत्खनन का कार्य किया और उनकी रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई अपनी अनेक खोजों से उन्होंने हरयाणा भू-भाग के प्राचीन इतिहास को सामने लाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है
उनके जाने से इतिहास के एक युग का अंत हो गया है

आइये उन्हें श्रद्धांजलि दें

Saturday, June 12, 2010



शुभा की एक कविता
अकलमंदी और मूर्खता

स्त्रियों की मूर्खता को पहचानते हुए
पुरुषों की अक्लमंदी को भी पहचाना जा सकता है

इस बात को उलटी तरह भी कहा जा सकता है

पुरुषों की मूर्खताओं को पहचानते हुए
स्त्रियों की अक्लमंदी को भी पहचाना जा सकता है

वैसे इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि
स्त्रियों में भी मूर्खताएँ होती हैं और पुरुषों में भी

सच तो ये है
कि मूर्खों में अक्लमंद
और अक्लमन्दों में मूर्ख छिपे रहते हैं
मनुष्यता ऐसी ही होती है

फिर भी अगर स्त्रियों की
अक्लमंदी पहचाननी है तो
पुरुषों की मूर्खताओं पर कैमरा फ़ोकस करना होगा।
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इच्छा
मैं चाहती हूँ कुछ अव्यवहारिक लोग
एक गोष्ठी करें
कि समस्याओं को कैसे बचाया जाए
उन्हें जन्म लेने दिया जाए
वे अपना पूरा कद पाएँ
वे खड़ी हों
और दिखाई दें
उनकी एक भाषा हो
और कोई उन्हें सुने
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औरतें

औरतें मिट्टी के खिलौने बनाती हैं
मिट्टी के चूल्हे
और झाँपी बनाती हैं

औरतें मिट्टी से घर लीपती हैं
मिट्टी के रंग के कपडे पहनती हैं
और मिट्टी की तरह गहन होती हैं

औरतें इच्छाएँ पैदा करती हैं और
ज़मीन में गाड़ देती हैं

औरतों की इच्छाएँ
बहुत दिनों में फलती हैं
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आता-जाता आदमी

चिड़िया गाती है
हवा पानी में घुल जाती है
धूप रेत में घुस जाती है

पेड़ छाया बनकर दौड़-भाग करते हैं
पानी पर काई फैलती है बड़ी शान से
टिड्डे उड़ान रोककर घास पर कूदने लगते हैं

ओछे दिल का आदमी बड़ी-बड़ी आँखें
बड़े-बड़े कान लिए आता-जाता रहता है
बिना कुछ देखे-बिना कुछ सुने
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मुस्टंडा और बच्चा

भाषा के अन्दर बहुत सी बातें
सबने मिलकर बनाई होती हैं
इसलिए भाषा बहुत समय एक विश्वास की तरह चलती है

जैसे हम अगर कहें बच्चा
तो सभी समझते हैं, हाँ बच्चा
लेकिन बच्चे की जगह बैठा होता है एक परजीवी
एक तानाशाह
फिर भी हम कहते रहते हैं-- बच्चा! ओहो बच्चा!
और पूरा देश मुस्टंडों से भर जाता है

किसी उजड़े हुए बूढे में
किसी ठगी गई औरत में
किसी गूंगे में जैसे किसी स्मृति में
छिपकर जान बचाता है बच्चा

अब मुस्टंडा भी है और बच्चा भी है
इन्हें अलग-अलग पहचानने वाला भी है
भाषा अब भी है विश्वास की तरह अकारथ
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Wednesday, June 9, 2010

फैज़ की नज़्म
दश्त-ए-तन्हाई में ऐ जान-ए-जहाँ लरज़ा हैं
तेरी आवाज़ के साये तेरे होंठों के सराब
दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स-ओ-ख़ाक तले
खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन और गुलाब

उठ रही है कहीं क़ुर्बत से तेरी साँस की आँच
अपनी ख़ुश्ब में सुलगती हुई मद्धम मद्धम
दूर् उफ़क़ पर् चमकती हुई क़तरा क़तरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम

उस क़दर प्यार से ऐ जान-ए जहाँ रक्खा है
दिल के रुख़सार पे इस वक़्त तेरी याद् ने हाथ
यूँ गुमाँ होता है गर्चे है अभी सुबह-ए-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात



गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का करोबार चले

क़फ़स उदास है यारो, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

कभी तो सुब्ह तेरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-ए-बार चले

बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे ग़मगुसार चले

जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब -ए-हिज्राँ
हमारे अश्क तेरी आक़बत सँवार चले

हुज़ोओर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब
गिरह में लेके गरेबाँ का तार तार चले

मक़ाम 'फैज़' कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले




(मख़दूम* की याद में)


"आप की याद आती रही रात भर

चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर"


गाह जलती हुई, गाह बुझती हुई

शम-ए-ग़म झिलमिलाती रही रात भर


कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन

कोई तस्वीर गाती रही रात भर


फिर सबा साया-ए-शाख़-ए-गुल के तले

कोई किस्सा सुनाती रही रात भर


जो न: आया उसे कोई ज़ंजीर-ए-दर

हर सदा पर बुलाती रही रात भर


एक उम्मीद से दिल बहलता रहा

इक तमन्ना सताती रही रात भर


  • हैदराबाद के सुप्रसिद्ध जनकवि मख़दूम मुहीउद्दीन (जिन्होंने तेलंगाना आंदोलन मे भाग लिया )को समर्पित ।

गाह= कभी; शम-ए-ग़म= ग़म का दीपक; पैरहन=वस्त्र; साया-ए-शाख-ए-गुल=फूलों भरी डाली की छाया; ज़ंजीर-ए-दर=दरवाज़े की कुंडी; सदा=आवाज़


वो लोग बहुत ख़ुशक़िस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिक़ी करते थे
हम जीते जी मसरूफ़ रहे
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया

काम इश्क़ के आड़े आता रहा
और इश्क़ से काम उलझता रहा
फिर आख़िर तंग आकर हम ने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया






meer taqi meer

उलटी हो गई सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

अह्द-ए-जवानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आँखें मूँद
यानि रात् बहोत थे जागे सुबह हुई आराम किया

नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करें हैं, हमको अबस बदनाम किया

सरज़द हम से बे-अदबी तो वहशत में भी कम ही हुई
कोसों उस की ओर गए पर सज्दा हर हर गाम किया

ऐसे आहो-एहरम-ख़ुर्दा की वहशत खोनी मुश्किल थी
सिहर किया, इजाज़ किया, जिन लोगों ने तुझ को राम किया

याँ के सपेद-ओ-स्याह में हमको दख़ल जो है सो इतना है
रात को रो-रो सुबह किया, या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया

'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा, दैर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया

Wednesday, February 24, 2010




मनमोहन की चंद कवितायेँ




इन शब्दों में
इन शब्दों में


वह समय है जिसमें मैं रहता हूँ



ग़ौर करने पर

उस समय का संकेत भी यहीं मिल जाता है।

जो न हो

लेकिन मेरा अपना है



यहाँ कुछ जगहें दिखाई देंगी

जो हाल ही में ख़ाली हो गई हैं

और वे भी

जो कब से ख़ाली पड़ी हैं



यहीं मेरा यक़ीन है

जो बाकी बचा रहा



यानी जो ख़र्च हो गया

वह भी यहीं पाया जाएगा



इन शब्दों में

मेरी बचीखुची याददाश्त है



और जो भूल गया है

वह भी इन्हीं में है



कला का पहला क्षण



कई बार आप

अपनी कनपटी के दर्द में

अकेले छूट जाते हैं



और कलम के बजाय

तकिये के नीचे या मेज़ की दराज़ में

दर्द की कोई गोली ढूँढते हैं



बेशक जो दर्द सिर्फ़ आपका नहीं है

लेकिन आप उसे गुज़र न जाने दें

यह भी हमेशा मुमक़िन नहीं



कई बार एक उत्कट शब्द

जो कविता के लिए नहीं

किसी से कहने के लिए होता है

आपके तालू से चिपका होता है

और कोई नहीं होता आसपास



कई बार शब्द नहीं

कोई चेहरा याद आता है

या कोई पुरानी शाम



और आप कुछ देर

कहीं और चले जाते हैं रहने के लिए

भाई, हर बार रुपक ढूँढ़ना या गढ़ना

मुमक़िन नहीं होता

कई बार सिर्फ़ इतना हो पाता है

कि दिल ज़हर में डूबा रहे

और आँखें बस कड़वी हो जायें
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दुखद कहानियाँ


दुखद कहानियाँ जागती हैं

रात ज़्यादा काली हो जाती है

और चन्द्रमा ज़्यादा अकेला



इनका नायक अभी मंच पर नहीं आया



या बार-बार वह आता है

अब किसी मसखरे के वेश में

और पहचाना नहीं जाता



दुख कहानियाँ जागती हैं

जो सुबह की ख़बरों में छिपी हुई रहीं

और दिन चर्या की मदद से

हमने जिनसे ख़ुद को बचाया



इन्हें सुनते हुए हम अक्सर बेख़बरी में

मृत्यु के आसपास तक चले जाते हैं

या अपने जीवन के सबसे गूढ़ केन्द्र में लौट आते हैं
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याद नहीं


स्मृति में रहना

नींद में रहना हुआ

जैसे नदी में पत्थर का रहना हुआ



ज़रूर लम्बी धुन की कोई बारिश थी

याद नहीं निमिष भर की रात थी

या कोई पूरा युग था



स्मृति थी

या स्पर्श में खोया हाथ था

किसी गुनगुने हाथ में



एक तकलीफ़ थी

जिसके भीतर चलता चला गया

जैसे किसी सुरंग में



अजीब ज़िद्दी धुन थी

कि हारता चला गया



दिन को खूँटी पर टाँग दिया था

और उसके बाद क़तई भूल गया था



सिर्फ़ बोलता रहा

या सिर्फ़ सुनता रहा

ठीक-ठीक याद नहीं

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आसानियाँ और मुश्किलें



न कहना आसान है

और कहना मुश्किल

लेकिन कहते चले जाना

न कहने जैसा है

और काफ़ी आसान है



इसी तरह न रहना आसान है

और रहना मुश्किल



लेकिन रहते चले जाना

न रहने जैसा है

और काफ़ी आसान है



चाहें तो सहने के बारे में भी

ऐसा ही कुछ कहा जा सकता है
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विस्मृति


एक दिन उसने पानी को स्पर्श करना चाहा



तब पानी नहीं था

त्वचा व्याकुल थी काँटे की तरह

उगी हुई पुकारती हुई



यही मुमक़िन था

कि वह त्वचा को स्पर्श से हमेशा के लिए

अलग कर दे



तो इस तरह स्पर्श से स्पर्श

यानी जल अलग हुआ

और उसकी जगह

ख़ाली प्यास रह गई



किसी और दिन किसी और समय

मोटे काँच के एक सन्दूक में

बनावटी पानी बरसता है

जिसे वह लालच से देखता है

लगातार



पानी की कोई स्मृति

अब उसके पास नहीं है

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शर्मनाक समय



कैसा शर्मनाक समय है

जीवित मित्र मिलता है

तो उससे ज़्यादा उसकी स्मृति

उपस्थित रहती है



और उस स्मृति के प्रति

बची खुची कृतज्ञता



या कभी कोई मिलता है

अपने साथ खु़द से लम्बी

अपनी आगामी छाया लिए
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एक आदमी


एक आदमी

कम कहता है

और कम साँस लेता है



कम सुनता है

और कम देखता है



कम हँसता है

और कम रोता है



कम चलता है

और लौट आता है



कम याद करता है

और बार-बार भूल जाता है



छोड़ देता है

और क्षमा कर देता है



एक आदमी रहता है

प्रियजन के बिना

और रहे जाता है





मनमोहन 1969 से कविता लिख रहे हैं और उनके मित्रों की एक ख़ासी तादाद कम से कम पिछले तीस साल से उनके किसी कविता संग्रह का इंतिज़ार कर रही है। ‘ज़िल्लत की रोटी’ नाम का यह संग्रह मनमोहन की 1985 के बाद की कविताओं का संक्षिप्त चयन है। इससे पहले की कविताएँ एक अलग संकलन की माँग करती हैं और बाद की कविताओं से भी एक किताब और बनती है। मनमोहन बेशक उन कवियों में है जो ‘साहिबे-दीवान’ बनने से पहले ही अपनी पीढ़ी की प्रतिनिधि आवाज़ बन जाते हैं।मनमोहन की कविता में वैचारिक और नैतिक आख्यान का एक अटूट सिलसिला है। उनके यहाँ वर्तमान जीवन या दैनिक अनुभव के किसी पहलू, किसी मामूली पीड़ा या नज़ारे के पीछे हमेशा हमारे समय की बड़ी कहानियों और बड़ी चिन्ताओं की झलक मिलती रही है। वह मुक्तिबोधियन लैंडस्केप के कवि हैं। उनकी भाषा और शिल्प को उनके कथ्य से अलग करना नामुमकिन है। यहाँ किसी तरह की कविताई का अतिरिक्त दबाव या एक वैयक्तिक मुहावरे के रियाज़ की ज़रूरत नहीं है, एक मुसलसल नैतिक उधेड़बुन है जो अपने वक्त की राजनीतिक दास्तानों और आत्मीय अनुभवों के पेचदार रास्तों से गुज़रकर उनकी भाषा और शिल्प को एक विशिष्ट ‘टेक्स्चर’ और धीमा लेकिन आश्वस्त स्वर और एक वांछनीय ख़ामोशी प्रदान करती है। मनमोहन अपनी पीढ़ी के सबसे ज़्यादा चिंतामग्न, विचारशील और नैतिक रूप से अत्यंत शिक्षित और सावधान कवि हैं। एक मुक्तिबोधीय पीड़ा और महान अपराधबोध उनके काव्य संस्कार में हैं, इन्हें एक रचनात्मक दौलत में बदलने की प्रतिभा और तौफीक उनके पास है और इनका इस्तेमाल उन्होंने बड़ी विनम्रता, वस्तुनिष्ठता और सतर्कता से किया है।मनमोहन की कविता में एक ‘गोपनीय आँसू’ और एक ‘कठिन निष्कर्ष’ है। इन दो चीज़ों को समझना आज अपने में कविता और समाज के, राजनीति और विचार के और, अन्ततः रचना और आलोचना के रिश्ते को समझना है।

Sunday, January 31, 2010




ढोल समागम


हरियाणा ज्ञान विज्ञानं समिति ने संत रवीदास जयंती के अवसर पर ३० जनवरी को रोहतक में ढोल समागम कार्यक्रम का आयोजन किया । इस कार्यक्रम में ५० से भी ज्यादा ढोल कलाकारों ने हिस्सा लिया












हरियाणा ज्ञान विज्ञानं समिति के कलाकारों ने संत रविदास के पद गाये और मंगलेश डबराल की कविता केशव अनुरागी का मंचन भी किया ढोल बजाने वाले लोक कलाकारों ने ढोल पर लोक धुनें बजायीं


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