Wednesday, February 24, 2010
मनमोहन की चंद कवितायेँ
इन शब्दों में
इन शब्दों में
वह समय है जिसमें मैं रहता हूँ
ग़ौर करने पर
उस समय का संकेत भी यहीं मिल जाता है।
जो न हो
लेकिन मेरा अपना है
यहाँ कुछ जगहें दिखाई देंगी
जो हाल ही में ख़ाली हो गई हैं
और वे भी
जो कब से ख़ाली पड़ी हैं
यहीं मेरा यक़ीन है
जो बाकी बचा रहा
यानी जो ख़र्च हो गया
वह भी यहीं पाया जाएगा
इन शब्दों में
मेरी बचीखुची याददाश्त है
और जो भूल गया है
वह भी इन्हीं में है
कला का पहला क्षण
कई बार आप
अपनी कनपटी के दर्द में
अकेले छूट जाते हैं
और कलम के बजाय
तकिये के नीचे या मेज़ की दराज़ में
दर्द की कोई गोली ढूँढते हैं
बेशक जो दर्द सिर्फ़ आपका नहीं है
लेकिन आप उसे गुज़र न जाने दें
यह भी हमेशा मुमक़िन नहीं
कई बार एक उत्कट शब्द
जो कविता के लिए नहीं
किसी से कहने के लिए होता है
आपके तालू से चिपका होता है
और कोई नहीं होता आसपास
कई बार शब्द नहीं
कोई चेहरा याद आता है
या कोई पुरानी शाम
और आप कुछ देर
कहीं और चले जाते हैं रहने के लिए
भाई, हर बार रुपक ढूँढ़ना या गढ़ना
मुमक़िन नहीं होता
कई बार सिर्फ़ इतना हो पाता है
कि दिल ज़हर में डूबा रहे
और आँखें बस कड़वी हो जायें
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दुखद कहानियाँ
दुखद कहानियाँ जागती हैं
रात ज़्यादा काली हो जाती है
और चन्द्रमा ज़्यादा अकेला
इनका नायक अभी मंच पर नहीं आया
या बार-बार वह आता है
अब किसी मसखरे के वेश में
और पहचाना नहीं जाता
दुख कहानियाँ जागती हैं
जो सुबह की ख़बरों में छिपी हुई रहीं
और दिन चर्या की मदद से
हमने जिनसे ख़ुद को बचाया
इन्हें सुनते हुए हम अक्सर बेख़बरी में
मृत्यु के आसपास तक चले जाते हैं
या अपने जीवन के सबसे गूढ़ केन्द्र में लौट आते हैं
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याद नहीं
स्मृति में रहना
नींद में रहना हुआ
जैसे नदी में पत्थर का रहना हुआ
ज़रूर लम्बी धुन की कोई बारिश थी
याद नहीं निमिष भर की रात थी
या कोई पूरा युग था
स्मृति थी
या स्पर्श में खोया हाथ था
किसी गुनगुने हाथ में
एक तकलीफ़ थी
जिसके भीतर चलता चला गया
जैसे किसी सुरंग में
अजीब ज़िद्दी धुन थी
कि हारता चला गया
दिन को खूँटी पर टाँग दिया था
और उसके बाद क़तई भूल गया था
सिर्फ़ बोलता रहा
या सिर्फ़ सुनता रहा
ठीक-ठीक याद नहीं
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आसानियाँ और मुश्किलें
न कहना आसान है
और कहना मुश्किल
लेकिन कहते चले जाना
न कहने जैसा है
और काफ़ी आसान है
इसी तरह न रहना आसान है
और रहना मुश्किल
लेकिन रहते चले जाना
न रहने जैसा है
और काफ़ी आसान है
चाहें तो सहने के बारे में भी
ऐसा ही कुछ कहा जा सकता है
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विस्मृति
एक दिन उसने पानी को स्पर्श करना चाहा
तब पानी नहीं था
त्वचा व्याकुल थी काँटे की तरह
उगी हुई पुकारती हुई
यही मुमक़िन था
कि वह त्वचा को स्पर्श से हमेशा के लिए
अलग कर दे
तो इस तरह स्पर्श से स्पर्श
यानी जल अलग हुआ
और उसकी जगह
ख़ाली प्यास रह गई
किसी और दिन किसी और समय
मोटे काँच के एक सन्दूक में
बनावटी पानी बरसता है
जिसे वह लालच से देखता है
लगातार
पानी की कोई स्मृति
अब उसके पास नहीं है
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शर्मनाक समय
कैसा शर्मनाक समय है
जीवित मित्र मिलता है
तो उससे ज़्यादा उसकी स्मृति
उपस्थित रहती है
और उस स्मृति के प्रति
बची खुची कृतज्ञता
या कभी कोई मिलता है
अपने साथ खु़द से लम्बी
अपनी आगामी छाया लिए
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एक आदमी
एक आदमी
कम कहता है
और कम साँस लेता है
कम सुनता है
और कम देखता है
कम हँसता है
और कम रोता है
कम चलता है
और लौट आता है
कम याद करता है
और बार-बार भूल जाता है
छोड़ देता है
और क्षमा कर देता है
एक आदमी रहता है
प्रियजन के बिना
और रहे जाता है
मनमोहन 1969 से कविता लिख रहे हैं और उनके मित्रों की एक ख़ासी तादाद कम से कम पिछले तीस साल से उनके किसी कविता संग्रह का इंतिज़ार कर रही है। ‘ज़िल्लत की रोटी’ नाम का यह संग्रह मनमोहन की 1985 के बाद की कविताओं का संक्षिप्त चयन है। इससे पहले की कविताएँ एक अलग संकलन की माँग करती हैं और बाद की कविताओं से भी एक किताब और बनती है। मनमोहन बेशक उन कवियों में है जो ‘साहिबे-दीवान’ बनने से पहले ही अपनी पीढ़ी की प्रतिनिधि आवाज़ बन जाते हैं।मनमोहन की कविता में वैचारिक और नैतिक आख्यान का एक अटूट सिलसिला है। उनके यहाँ वर्तमान जीवन या दैनिक अनुभव के किसी पहलू, किसी मामूली पीड़ा या नज़ारे के पीछे हमेशा हमारे समय की बड़ी कहानियों और बड़ी चिन्ताओं की झलक मिलती रही है। वह मुक्तिबोधियन लैंडस्केप के कवि हैं। उनकी भाषा और शिल्प को उनके कथ्य से अलग करना नामुमकिन है। यहाँ किसी तरह की कविताई का अतिरिक्त दबाव या एक वैयक्तिक मुहावरे के रियाज़ की ज़रूरत नहीं है, एक मुसलसल नैतिक उधेड़बुन है जो अपने वक्त की राजनीतिक दास्तानों और आत्मीय अनुभवों के पेचदार रास्तों से गुज़रकर उनकी भाषा और शिल्प को एक विशिष्ट ‘टेक्स्चर’ और धीमा लेकिन आश्वस्त स्वर और एक वांछनीय ख़ामोशी प्रदान करती है। मनमोहन अपनी पीढ़ी के सबसे ज़्यादा चिंतामग्न, विचारशील और नैतिक रूप से अत्यंत शिक्षित और सावधान कवि हैं। एक मुक्तिबोधीय पीड़ा और महान अपराधबोध उनके काव्य संस्कार में हैं, इन्हें एक रचनात्मक दौलत में बदलने की प्रतिभा और तौफीक उनके पास है और इनका इस्तेमाल उन्होंने बड़ी विनम्रता, वस्तुनिष्ठता और सतर्कता से किया है।मनमोहन की कविता में एक ‘गोपनीय आँसू’ और एक ‘कठिन निष्कर्ष’ है। इन दो चीज़ों को समझना आज अपने में कविता और समाज के, राजनीति और विचार के और, अन्ततः रचना और आलोचना के रिश्ते को समझना है।
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