Tuesday, December 15, 2009

शुभा की एक कविता


स्त्री का एकांत


गुरुओं क्या हाल बाना रखा है


आओ हम निभाती हैं स्त्री धर्म


पोंछती हैं तुम्हारा पसीना


देती हैं कन्तासमित उपदेश


कुछ समय अपना ज्ञान भूलकर देखो


कुछ समय शासन की इच्छा छोडो


कुछ समय पोषित करना सीखो


कुछ समय इस बच्ची को गोद में लो


जो तुम्हारी नहीं है

Thursday, November 26, 2009

मुक्तिबोध के जन्मदिन पर एक कविता



मनुष्य की परिभाषा
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यहाँ सामान बदला जाता है
और एक ख़ास रिआयत के साथ
पकने दी जाती है कविता
वैज्ञानिक अवसाद में
चेतना से छुड़ा देते हैं हम धब्बे
दुनिया से ख़राबी
जूतों से उनकी उदासी और नमी
और उन्हें दूसरे अन्तरिक्ष के अनाम
नक्षत्रों पर उतार आते हैं
आते हैं हमारे युग के आदिकवि राख और
धूल से सने
और कहते हैं सुनो लोग समझते हैं मैं
मर गया बोलो मैं क्या सचमुच मर गया
धैर्य से हम उन्हें समझाते हैं बाऊ तुम
मरे नहीं हो तुम तो अमर हो
हिन्दी साहित्य में कौन भला तुम्हें
मार सकता है
वह फफक-फफक कर रोने लगते हैं
सुनो-सुनो मुझे तुम्हारी बातें साफ़ सुनाई
नहीं देतीं हैं सिर्फ़
पानी की आवाज़ तुम्हारे और मेरे बीच
मुझे दिखाई देती है बस बारिश
बारिश बारिश
बाऊ चलो हम तुम्हें उस यान में
बिठा देते हैं जो क्षरण से भय से
गुरुत्वाकर्षण से मुक्त है
बाऊ नहीं सुनते-अच्छा तुम कहते हो
तुम लोग मेरे ऋणी हो : लाओ
वापस करो मेरा क़र्ज़ मैं इसी बारिश में
भीगता अकेला अपनी वास्तविकता के
तलघर में वापस चला जाऊँगा
असद ज़ैदी की यह कविता उनके पहले कविता संग्रह `कविता का जीवन` से ली गई है। कवि ने यह `मुक्तिबोध के लिए` है, जैसी कोई टिप्पणी अलग से नहीं की है और इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं लगती है। मुक्तिबोध के जन्मदिन पर इस कविता को विशेष रूप से यहाँ दिया जा रहा है।

Thursday, October 29, 2009

एक परिंदा उड़ता है
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एक परिंदा उड़ता है
मुझसे पूछे बिना
मुझे बताये बिना
उड़ता है एक परिंदा
मेरे भीतर
मेरी आँखों में

मनमोहन

Tuesday, August 11, 2009


मंगलेश डबराल की तीन कवितायें




घर शांत है


धूप दीवारों को धीरे-धीरे गर्म कर रही है

आसपास एक धीमी आँच है

बिस्तर पर एक गेंद पड़ी है

किताबें चुपचाप है

हालांकि उनमें कई तरह की विपदाएँ बंद है

में अधजगा हूँ और अधसोया हूँ

धसोया हूँ और अधजगा हूँ

बाहर से आती आवाज़ों में

किसी के रोने की आवाज़ नहीं है

किसी के धमकाने या डरने की आवाज़ नहीं है

न कोई प्रार्थना कर रहा है

न कोई भीख माँग रहा है

और मेरे भीतर ज़रा भी मैल नहीं है

बल्कि एक ख़ाली जगह है

जहाँ कोई रह सकता है

और मैं लाचार नहीं हूँ इस समय

बल्कि भरा हुआ हूँ एक ज़रूरी वेदना से

और मुझे याद आ रहा है बचपन का घर

जिसके आँगन में औंधा पड़ा में

पीठ पर धूप सेंकता था

मैं दुनिया से कुछ नहीं माँग रहा था

मैं जी सकता हूँ गिलहरी गेंद

या घास जैसा कोई जीवन

मुझे चिंता नहीं

कब कोई झटका हिलाकर ढहा देगा

इस शांत घर को





कुछ देर के लिए


कुछ देर के लिए मैं कवि था

फटी-पुरानी कविताओं की मरम्मत करता हुआ

सोचता हुआ कविता की जरूरत किसे है

कुछ देर पिता था

अपने बच्चों के लिए

ज्यादा सरल शब्दों की खोज करता हुआ

कभी अपने पिता की नक़ल था

कभी सिर्फ़ अपने पुरखों की परछाईं

कुछ देर नौकर था सतर्क सहमा हुआ

बची रहे रोज़ी- रोटी कहता हुआ


कुछ देर मैं अन्याय का विरोध किया


फिर उसे सहने की ताकत जुटाता रहा


मैंने सोचा मैं इन शब्दों को नहीं लिखूंगा


जिनमें मेरी आत्मा नहीं है जो आततायियों के हैं


और जिनसे खून जैसा टपकता है


कुछ देर मैं एक छोटे से गड्ढे में गिरा


रहा यही मेरा मानवीय पतन था


मैंने देखा मैं बचा हुआ हूँ और साँस


ले रहा हूँ और मैं क्रूरता नहीं करता


बल्कि जो निर्भय होकर क्रूरता किये जाते हैं


उनके विरुद्ध मेरी घृणा बची हुई है यह काफ़ी है


बचे-खुचे समय के बारे में मेरा खयाल था


मनुष्य को छह या सात घंटे सोना चाहिये


सुबह मैं जागा तो यह


एक जानी-पहचानी भयानक दुनिया में


फिर से जन्म लेना था यह सोचा मैंने कुछ देर तक





अभिनय
एक गहन आत्मविश्वास से भरकर

सुबह निकल पड़ता हूँ घर से

ताकि सारा दिन आश्वस्त रह सकूँ

एक आदमी से मिलते हुए मुस्कराता हूँ

वह एकाएक देख लेता है मेरी उदासी

एक से तपाक से हाथ मिलाता हूँ

वह जान जाता है मैं भीतर से हूँ अशांत

एक दोस्त के सामने खामोश बैठ जाता हूं

वह रहता है तुम दुबले बीमार क्यों दिखते हो

जिन्होंने मुझे कभी घर में नहीं देखा

वे कहते हैं अरे आप टीवी पर दिखे थे एक दिन

बाज़ारों में घूमता हूँ निश्शब्द

डिब्बों में बंद हो रहा है पूरा देश

पूरा जीवन बिक्री के लिए

एक नयी रंगीन किताब है जो मेरी कविता के

विरोध में आयी है

जिसमें छपे सुंदर चेहरों को कोई कष्ट नहीं

जगह-जगह नृत्य की मुद्राएँ हैं विचार के बदले

जनाब एक पूरी फिल्म है लंबी

आप खरीद लें और भरपूर आनंद उठायें

Friday, July 24, 2009


फैज़ की एक नज़्म






इन्तिसाब



आज के नाम


और

आज के ग़म के नाम

आज का ग़म के: है ज़िन्दगी के भरे गुलसिताँ से ख़फ़ा

ज़र्द पत्तों का बन

ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है

दर्द की अंजुमन जो मेरा देस है

किलर्कों की अफ़सुर्दा जानों के नाम

किर्मख़ुर्दा दिलों और ज़बानों के नाम

पोस्टमैनों के नाम

ताँगेवालों के नाम

रेलवानों के नाम

कारख़ानों के भोले जियालों के नाम

बादशाहे-जहाँ, वालिए-मासिवा, नायबुल्लाहे-फ़िल-अर्ज़,

दहक़ाँ के नाम

जिसके ढोरों को ज़ालिम हँका ले गए

जिसकी बेटी को डाकू उठा ले गए

हाथ-भर खेत से एक अंगुश्त पटवार ने काट ली है

दूसरी मालिये के बहाने से सरकार ने काट ली है

जिसकी पग ज़ोरवालों के पाँवों तले

धज्जियाँ हो गई है

उन दुखी माओं के नाम

रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और

नींद की मार खाए हुए बाजुओं से सँभलते नहीं

दुख बताते नहीं

मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं


उन हसीनाओं के नाम

जिनकी आँखों के गुल

चिलमनों और दरीचों की बेलों पे बेकार खिल-खिल-खिल के

मुर्झा गये हैं।


उन ब्याहताओं के नाम

जिनके बदन

बेमुहब्बत रियाकार सेजों पे सज-सज के उकता गये हैं

बेवाओं के नाम

कटड़ियों और गालियों, मुहल्लों के नाम

जिनकी नापाक ख़ाशाक से चाँद रातों

को आ-आ के करता है अक्सर वज़ू

जिनके सायों में करती हैं आहो-बुका

आँचलों की हिना चूड़ियों की खनक

काकुलों की महक

आरजूमंद सीनों की अपने पसीने में जलने की बू


तालिबइल्मों के नाम

वो जो असहाबे-तब्लो-अलम

के दरों पर किताब और क़लम

का तक़ाज़ा लिये, हाथ फैलाए

पहुंचे, मगर लौटकर घर न आये

वो मासूम जो भोलेपन में

वहाँ अपने नन्हें चिराग़ों में लौ की लगन

ले के पहुँचे, जहाँ

बँट रहे थे घटाटोप, बेअंत रातों के साये


उन असीरों के नाम

जिनके सीनों में फ़र्दा के शबताब

गौहर जेलख़ानों की शोरीद: रातों की सरसर में

जल-जल के अंजुम नुमाँ हो गये हैं

आनेवाले दिनों के सफ़ीरों के नाम

वो जो ख़ुशबू-ए-गुल की तरह

अपने पैग़ाम पर ख़ुद फ़िदा हो गये हैं।

Thursday, July 16, 2009

मनमोहन की कुछ कविताएँ .........


देखते रहो



देखते रहो

अभी तो कुछ नहीं दिखाया गया


देखना, अभी क्या क्या दिखाया जाता है


तुम्हें कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं है

तुम तो बस देखते रहो

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ग़लती ने राहत की साँस ली



उन्होंने झटपट कहा

हम अपनी ग़लती मानते हैं



ग़लती मनवाने वाले खुश हुए

की आख़िर उन्होंने ग़लती मनवा कर ही छोड़ी


उधर ग़लती ने राहत की साँस ली
की अभी उसे पहचाना नहीं गया
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एक इच्छा गीत

जीती रहें संध्याएँ
जो खामोश उतरें
गरीब बालक के मन पर

जीते रहें सफीने
वो जो हर दिशा में आयें आसमानों में
बिन बुलाये रोज़-बा-रोज़ मालामाल
और सूने तटों पर लग जायें

जीता रहे
पुरानी गलियों के झुरमुट में भटकते
अकस्मात जो किसी छोर पर दिख जाए
कठिन समय का मित्र

खादेदी गई रुंधी हुई
कुचली हुई बस्तियों में
जगे रहें दैनिक उत्पात

भयानक और गूढ़तम अंतर्कलह जगे रहें
बार-बार तडपे जहाँ नए ख्यालों की बिजली

खोले आँख जहाँ साफ सुथरे अच्छे जीवन की
पवित्र इच्छा नवजात
पहली बार

और जो छा जाए घटा की तरह
मन की मलिनता पर
गहन मंतव्य बार-बार मुंह दिखलायें
बड़ा रचने की इच्छा पैदा हो
और दूर तक देखने की योग्यता
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यकीन

एक दिन किया जाएगा हिसाब
जो कभी रखा नहीं गया

हिसाब
एक दिन सामने आएगा

जो बीच में ही चले गए
और अपनी कह नहीं सके
आयेंगे और
अपनी पूरी कहेंगे

जो लुप्त हो गया अधुरा नक्शा
फ़िर खोजा जाएगा
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इच्छा

एक ऐसी सवच्छ सुबह मैं जागु
जब सब कुछ याद रह जाए

और बहुत कुछ भूल जाए
जो फालतू है
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उसकी थकान

उस स्त्री की थकान थी
की वह हंस कर रह जाती थी

जबकि वे समझते थे
की अंततः उसने उन्हें क्षमा कर दिया है
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शर्मनाक समय

कैसा शर्मनाक समय जीवित मित्र मिलता है
तो उससे ज्यादा उसके स्मृति
उपस्थित रहती है


और उस समृति के प्रति
बची खुची कृतज्ञता

या कभी कोई मिलता है
अपने साथ ख़ुद से लम्बी
अपनी आगामी छाया लिए
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मनमोहन १९६९ से कवितायें लिख रहें हैं। मनमोहन बेशक उन कवियों में हैं जो 'साहिबे-दीवान' बनने से पहले ही अपनी पीढी की प्रतिनिधि आवाज़ बन जाते हैं।
मनमोहन की कविता में वैचारिक और नैतिक आख्यान का एक अटूट सिलसिला है। उनके यहाँ वर्तमान जीवन या दैनिक अनुभव के किसी पहलू , किसी मामूली पीड़ा या नज़ारे के पीछे हमेशा हमारे समय की बड़ी कहानियों और बड़ी चिंताओं की झलक मिलती रही है। मनमोहन अपनी पीढी के सबसे ज्यादा चिंतामग्न, विचारशील और नैतिक रूप से अत्यन्त शिक्षित और सावधान कवि हैं। मनमोहन की कविया में एक 'गोपनीय आंसू' और एक 'कठिन निष्कर्ष' है। इन दो चीजो को समझना आज अपने समय में कविता और समाज के, राजनीती और विचार के और, अंततः रचना और आलोचना के रिश्ते को समझना है।
------------------------------- असद ज़ैदी

मनमोहन की और कवितायें अगली पोस्ट में ------

Tuesday, July 14, 2009

असद ज़ैदी की एक कविता .....
.
.
.
एक कविता जो पहले ही से ख़राब थी

होती जा रही है अब और ख़राब

कोई इन्सानी कोशिश उसे सुधार नहीं सकती

मेहनत से और बिगाड़ होता है पैदा

वह संगीन से संगीनतर होती जाती

एक स्थायी दुर्घटना है

सारी रचनाओं को उसकी बगल से

लम्बा चक्कर काटकर गुज़रना पड़ता है

मैं क्या करूँ उस शिथिल

सीसे-सी भारी काया को

जिसके आगे प्रकाशित कविताएँ महज तितलियाँ है और

सारी समालोचना राख

मनुष्यों में वह सिर्फ़ मुझे पहचानती है

और मैं भी मनुष्य जब तक हूँ तब तक हूँ।

Monday, July 13, 2009


(मुक्तिबोध की कवितायें - - - - - - - - - - - - - -



पता नहीं कब, कौन, कहाँ किस ओर मिले,
किस सांझ मिले, किस सुबह मिले!!
यह राह जिंदगी की
जिससे जिस जगह मिले
...टटोलो मन, जिससे जिस छोर मिले,
कर अपने-अपने तप्‍त अनुभवों की तुलना
घुलना मिलना!!
- - - - - - - -
स्‍वर्गीय उषा
तुमको निहारती बैठेगी
आत्‍मीय और इतनी प्रसन्‍न
मानव के प्रति, मानव के जी की पुकार
जितनी अनन्‍य!
('पता नहीं')
- - - - - - - -

आदमी की दर्दभरी गहरी पुकार सुन
पड़ता है दौड़ जो
आदमी है वह ख़ूब
जैसे तुम भी आदमी
वैसे मैं भी आदमी,
बूढ़ी मां के झुर्रीदार
चेहरे पर छाए हुए
आंखों में डूबे हुए
जिंदगी के तजुर्बात
बोलते हैं एक साथ
जैसे तुम भी आदमी
वैसे मैं भी आदमी!
('चांद का मुंह टेढ़ा है')
- - - - - - - -

कोशिश करो
कोशिश करो
जीने की,
ज़मीन में गड़कर भी!
('एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्‍मकथ्‍य')
- - - - - - - -

बहुत अच्‍छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने...
सब सच्‍चे लगते हैं
अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है,
मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ,
जाने क्‍या मिल जाए!!

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्‍येक पत्‍थर में
चमकता हीरा है
हर-एक छाती में आत्‍मा अधीरा है,
प्रत्‍येक वाणी में महाकाव्‍य-पीड़ा है,
पलभर मैं सबमें से गुज़रना चाहता हूँ,
प्रत्‍येक उर में से तिर आना चाहता हूँ,
इस तरह ख़ुद को ही दिए-दिए फिरता हूँ.
('मुझे क़दम-क़दम पर')
- - - - - - - -

यदि उस श्रमशील नारी की आत्‍मा
सब अभावों को सहकर
कष्‍टों को लात मार, निराशाएँ ठुकराकर
किसी ध्रुव-लक्ष्‍य पर
खिंचती-सी चली जाती है,
जीवित रह सकता हूँ मैं भी तो वैसे ही!
- - - - - - - -
थूहर के झुरमुटों से लसी हुई मेरी इस राह पर
धुंधलके में खोए इस
रास्‍ते पर आते-जाते दीखते हैं
लठ-धारी बूढ़े-से पटेल बाबा
ऊँचे-से किसान दादा
वे दाढ़ी-धारी देहाती मुसलमान चाचा और
बोझा उठाए हुए
माएँ, बहनें, बेटियाँ...
सबको ही सलाम करने की इच्‍छा होती है,
सबको राम-राम करने को चाहता है जी
आंसुओं से तर होकर प्‍यार के...
(सबका प्‍यारा पुत्र बन)
सभी ही का गीला-गीला मीठा-मीठा आशीर्वाद
पाने के लिए होती अकुलाहट
किंतु अनपेक्षित आंसुओं की नवधारा से
कंठ में दर्द होने लगता है
- - - - - - - -
असह्य-सा स्‍वयं-बोध विश्‍व-चेतना-सा कुछ
नवशक्ति देता है
('मुझे याद आते हैं')
- - - - - - - -

गिरस्तिन मौन मां-बहनें
सड़क पर देखती हैं
भाव-मंथर, काल-पीडित ठठरियों की श्‍याम गो-यात्रा
उदासी से रंगे गंभीर मुरझाए हुए प्‍यारे
गऊ-चेहरे
निरखकर,
पिघल उठता मन!!
रुलाई गुप्‍त कमरे में हृदय के उभड़ती-सी है!!
- - - - - - - -
भोले भाव की करुणा बहुत ही क्रांतिकारी सिद्ध होती है.
('मेरे लोग')
- - - - - - - -

अरे! जन-संग ऊष्‍मा के
बिना, व्‍यक्तित्‍व के स्‍तर जुड़ नहीं सकते.
प्रयासी प्रेरणा के स्रोत
सक्रिय वेदना की ज्‍योति,
सब साहाय्य उनसे लो.
तुम्‍हारी मुक्ति उनके प्रेम से होगी.
कि तदगत लक्ष्‍य में से ही
हृदय के नेत्र जागेंगे,
वह जीवन-लक्ष्‍य उनके प्राप्‍त
करने की क्रिया में से
उभर-ऊपर
विकसते जाएँगे निज के
तुम्‍हारे गुण
कि अपनी मुक्ति के रास्‍ते
अकेले में नहीं मिलते!
- - - - - - - -
मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
सभी प्रश्‍नोत्‍तरी की तुंग प्रतिमाएँ
गिराकर तोड़ देता हूँ हथौड़े से
कि वे सब प्रश्‍न कृत्रिम और
उत्‍तर और भी छलमय,
समस्‍या एक-
मेरे सभ्‍य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव-
सुखी, सुंदर व शोषण-मुक्‍त
कब होंगे?
('चकमक की चिनगारियाँ')
- - - - - - - -

उन जन-जन का दुर्दांत रुधिर
मेरे भीतर, मेरे भीतर.
उनकी हिम्‍मत, उनका धीरज,
उनकी ताक़त
पायी मैंने अपने भीतर.
कल्‍याणमयी करुणाओं के
वे सौ-सौ जीवन-चित्र लिखे
मंडराता है मेरा जी चारों ओर सदा
उनके ही तो.
- - - - - - - -
मस्तिष्‍क तंतुओं में प्रदीप्‍त वेदना यथार्थों की जागी
वह सड़क बीच
हर राहगीर की छांह तले
उसका सब कुछ जीने पी लेने की उतावली
यह सोच कि जाने कौन वेष में कहां वह कितना सत्‍य मिले-

वह नत होकर उन्‍नत होने की बेचैनी!
('जब प्रश्‍नचिह्न बौखला उठे')
- - - - - - - -

अजाने रास्‍तों पर रोज़
मेरी छांह यूं ही भटकती रहती
किसी श्‍यामल उदासी के कपोलों पर अटकती है
अंधेरे में, उजाले में,
कुहा के नील कुहरे और पाले में
व खड्डो-खाइयों में घाटियों पर या पहाड़ों के

कगारों पर
किसी को बांह में भर, चूमकर, लिपटा
हृदय में विश्‍व-चेतस अग्नि देती है
कि जिससे जाग उठती है
समूची आत्‍म-संविद् उष्‍मश्‍वस् गहराइयां,
गहराइयों से आग उठती है!!
- - - - - - - -
मैं देखता क्‍या हूं कि-
पृथ्‍वी के प्रसारों पर
जहां भी स्‍नेह या संगर,
वहां पर एक मेरी छटपटाहट है,
वहां है ज़ोर गहरा एक मेरा भी,
सतत् मेरी उपस्थिति, नित्‍य-सन्निधि है.
('अंत:करण का आयतन')
- - - - - - - -

सचमुच, मुझको तो जिंदगी-सरहद
सूर्यों के प्रांगण पार भी जाती-सी दीखती!!
मैं परिणत हूँ,
कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता
पूंजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता,
स्‍वातंत्र्य व्‍यक्ति का वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को
जन को.

Monday, July 6, 2009


नरेश प्रेरणा की एक पुरानी कविता


मेरे शब्द


मेरे शब्दों में


सिर्फ़ नफरत नहीं है


सिर्फ़ प्यार भी


नहीं है


शारीरिक गुणवत्ता भी नहीं है


उनके शब्दों में


ऊँचे ऊँचे और


एक के बाद एक लगातार


दिखाई देने वाले


सपने हैं


हमें लगता है
हर रात एक नए युग


की शुरुआत होती है


हर तरफ सब कुछ नया


नई नीतियां


नई प्रणालियाँ


नए समझोते


बड़े प्यार से हर बड़ी समस्या से


बच के निकालने के ।


मेरे शब्दों में


नफरत है


समस्याओं के प्रति


क्रोध है


समस्याओं के दिन बा दिन बढ़ने पर


इंक़लाब का नारा बुलंद करते है


इन समस्याओं को दूर करने के लिए।


फैक्ट्रियों में काम करता


सड़कों पर कागज चुगता


और स्कूल जाते बच्चों को निहारता


हर बच्चा मेरे शब्दों की


ज़रूरत महसूस करता है


लगातार बढती उत्सुक्ताएं


समाज को समझने की


मेरे शब्दों में विद्यमान हैं।

लोगों को

समाज की वयवस्था

समझाने का मौका चाहने वाले

लाखों बेरोजगारों के

इरादे शब्दों में हैं

नौकरी लगे लोगों में

छटनी की समस्या

लगातार बढ़ रहा कम करने का समय

कभी भी नौकरी से निकलने की

सर पर लटकती तलवार

सभी समस्याओं को सुलझाने के लिए

संगठित न होने देने के सरकारी नीतियों

के खिलाफ ज़ोर डर रोष

मेरे शब्दों में।

उनके शब्दों का प्रचार प्रसार

किया जाता है

धर्म राजनीती

और पुरे मीडिया द्वारा

उनके शब्दों के पीछे

बड़ी ताक़त है

लोगों को लगता है वो कभी भी

ख़त्म न होंगे

हमेशा यूँ ही ठहाके मरते रहेंगे

लोगों को

कभी कभी एइसा भी लगता होगा

मेरे शब्द शअनिक है

और मेरे शब्दों के पीछे

बहुत कम ताक़त है?

मेरे शब्दों को अपनाने की ज़रूरत

हर अलग अलग जगह

बेहतर जीवन के लिए संगर्ष

में लगे लोग महसूस कर रहें हैं।

और मेरे शब्द

इस पुरी जनशक्ति को

संगठित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं

जिसमें आधुनिकता के खोखले

नीतियों और समझोतों को

जो हमारे मूल अधिकारों को

हमसे अलग रखने के लिए

बनाये गए हैं, को

तोड़ गिरना है।

अलग अलग जगहों से उठ कर

मेरे शब्द नए जीवन का निर्माण

करने में लगे हैं

वे जीवित रहेंगे

जब तक जीवन है

जन समूह है

और बेहतर जीवन के लिए इच्छा है

मेरे शब्द

और जन समूह

मिटा देंगे उन

शब्दों को

जो जन समूह को उनके

मूल अधिकारों ले अलग रखकर

जन समूह को तोड़कर

कमज़ोर कर

अपनी सत्ता बनाये रखते है

..................................................................... जतन से साभार, अंक १२

...............नरेश, सफ़दर की शहादत के ठीक बाद से हरयाणा में नाटक आन्दोलन को बनाने और आगे बढ़ने के लिए नेतृत्वकारी भूमिका निभा रहे हैं। वे हरयाणा ज्ञान विज्ञानं समिति के राज्य सचिव मंडल के सदस्य और राज्य के संस्कृतीत विंग के कन्वीनर हैं ।

.....उन्होंने ये कविता san ८६-८७ में लिखी थी.

Sunday, July 5, 2009


कुनाल की एक कविता केशव के लिए

आज, तुम जहाँ खड़े हो....

अपने अतीत की गठरी खोलते....

कुछ न बोलते....

बस...ज़रा सा हंसते हुए....

कसते हुए फिर से अपनी कमर...

और ठानते हुए कि - शाम होने तक खंडहरों के उस पार पहुंचना है....

कि -सूख चुके सोते में फिर से झरने को बहना है....

तुम , फिर से अपनी कुदाल पैनी करते हो ,....

कुछ बुदबुदाते हो या कि यूं कह लूं -

कि चोट ज़रा तेज़ पड़े इसलिए कोई मन्त्र बांचते हो

यहाँ पहुँचते हुए कितने रास्ते तुम्हारे तलवों में समा गए....

तुम्हारी चाल ढोलक कि थाप में बदल गयी....

और तुम्हारे हाथ अभिनय करने लगे....

तुम्हारा मन अब भी वही गीत गुनगुनाता है जो तुम्हारा बचपन गाता था....

उस बचपन में तुम कितने बड़भागी रहे....

जो हमारी कथाओं में थे वो तुम्हारे साथी रहे....

मसलन....

खरगोश बकरी तोता कुत्ता मुर्गा....

और कच्ची दीवारें....

यकायक पानी में कोई पत्थर फेंकता है और तुम नींद से जागते हो....

खुद को महानगर में पाते हुए, सँभालते हुए....

कुछ देर चुप हो चुके तुम कहीं खो जाते हो....

गलत ठीक का दाना चुगते, मन को अपनी सांस में थाम लेते हो....

कोई याद तुम में सुकून का घूँट भरती है और तुम दौड़ कर बस में चढ़ जाते हो....

खुद को उसी याद के हवाले करके तुम सिर्फ बाहर झांकते हो,...

देखते कुछ भी नहीं....

आज तुम जहाँ खड़े हो....

कभी कभी खुद से दूर चले जाते हो....

मगर तुम्हारी दिलकश आवाज़....

तुम्हे फिर से लौटा लाती है....

तुम्हारे पास.... आज, तुम जहाँ खड़े हो....

अपने अतीत की गठरी खोलते....कुछ न बोलते....

बस...

ज़रा सा हंसते हुए.......

Saturday, July 4, 2009




शुभा की दो कवितायें


पेड़ों की उदासी


पेड़ों के पास ऐसी कोई भाषा नहीं थी


जिसके ज़रिये वे अपनी बात


इन्सानों तक पहुंचा सकें


शायद पेड़ बुरा मान गए किसी बात का


वे बीज कम उगाने लगे


और बीजों में उगने की इच्छा ख़त्म हो गई


बचे हुए पेड़ों की उदासी देखी जा सकती है


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हमारे समय में


हम महसूस करते रहते हैं


एक दूसरे की असहायता
हमारे समय में यही है


जनतंत्र का स्वरूप


कई तरह की स्वाधीनता है


हमारे पास


एक सूनी जगह है


जहाँ हम अपनी असहमति


व्यक्त कर सकते हैं


या जंगल की ओर निकल सकते हैं


आत्महत्या करते हुए हम


एक नोट भी छोड़ सकते हैं


या एक नरबलि पर चलते


उत्सव में नाक तक डूब सकते हैं


हम उन शब्दों में


एक दूसरे को तसल्ली दे सकते हैं


जिन शब्दों को


हमारा यकीन छोड़ गया है


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शुभा बेहद कम छपने वाली कवियत्री हैं। उनकी जो कविताएँ गाहे-बगाहे विभिन्न पत्रिकाओं में छपी हैं, उनमें स्त्री विमर्श बेहद ओथेन्टिक और मुखर रूप से सामने आया है। यहाँ दी जा रही कविताओं का स्वर थोड़ा भिन्न है। १९९२ और उसके बाद के हादसों से उपजी व्यथा की अनुगूंज भी इस स्वर में शामिल है



Sunday, June 7, 2009

फैज़ अहमद फैज़

हम देखेंगे
हम देखेंगे
लाज़िम है केः हम भी देखेंगे
वोः दिन केः जिसका वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिक्खा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गराँ
रूई की तरह उड़ जायेंगे
हम महकूमों के पाँवों-तले
जब धरती धड़ धड़ धड़केगी
और अह्‍ल-ए-हिकम के सर ऊपर जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के का'बे से
सब बुत उठवाये जायेंगे
हम अह्‍ल-ए-सफ़ा,मर्दूद-ए-हरम
मसनद पेः बिठाये जायेंगे
सब ताज उछाले जायेंगेसब तख़्त गिराये जायेंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है,नाज़िर भी
उट्ठेगा 'अनक हक़' का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क-ए ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

तराना
दरबार-ए-वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जायेंगे
कुछ अपनी सज़ा को पहुँचएंगे,कुछ अपनी जज़ा ले जायेंगेऎ
ख़ाक-नसीनों उठ बैठो,वो वक़्त क़रीबा पहुँचा है
जब तख़्त गिराये जायेंगे,जब ताज उछाले जायेंगे
अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें,अब ज़िन्दानो की खैर नहीं
जो दरिया झूम के उट्ठे हैं,तिनकों से न टाले जायेंगे
चलते भी चलो,बढ़ते भी चलो,बाजू भी बहुत हैं सर भी बहुत
चलते भी चलो के : अब डेरे मंजिल ही पे डाले जायेंगेऎ
जुल्म के मातो,लब खोलो,चुप रहनेवालो,चुप कब तक
कुछ हश्र तो इनसे उट्ठेगा,कुछ दूर तो नाले जायेंगे

Friday, June 5, 2009



फैज़ अहमद फैज़ की एक गज़ल

Saturday, May 16, 2009


मनमोहन की कविता

यकीन



एक दिन किया जाएगा हिसाब

जो कभी रखा नहीं गया

हिसाब

एक दिन सामने आएगा

जो बीच में ही चले गए

और अपनी कह नहीं सके

आयेंगे और

अपनी पूरी कहेंगे

जो लुप्त हो गया अधूरा नक्शा

फ़िर खोजा जाएगा




Thursday, May 7, 2009

एक नई शुरुआत हुई है .... अभी लडाई जारी है .....
सदियों से जो गए दबाये आज उन्हीं की बारी है ...
हर इन्सान को न्याय मिले कोशिश ये ही हमारी है...
गॉंव वही मजबूत है जिस में सब की हिस्से दारी है....