Saturday, June 12, 2010



शुभा की एक कविता
अकलमंदी और मूर्खता

स्त्रियों की मूर्खता को पहचानते हुए
पुरुषों की अक्लमंदी को भी पहचाना जा सकता है

इस बात को उलटी तरह भी कहा जा सकता है

पुरुषों की मूर्खताओं को पहचानते हुए
स्त्रियों की अक्लमंदी को भी पहचाना जा सकता है

वैसे इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि
स्त्रियों में भी मूर्खताएँ होती हैं और पुरुषों में भी

सच तो ये है
कि मूर्खों में अक्लमंद
और अक्लमन्दों में मूर्ख छिपे रहते हैं
मनुष्यता ऐसी ही होती है

फिर भी अगर स्त्रियों की
अक्लमंदी पहचाननी है तो
पुरुषों की मूर्खताओं पर कैमरा फ़ोकस करना होगा।
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इच्छा
मैं चाहती हूँ कुछ अव्यवहारिक लोग
एक गोष्ठी करें
कि समस्याओं को कैसे बचाया जाए
उन्हें जन्म लेने दिया जाए
वे अपना पूरा कद पाएँ
वे खड़ी हों
और दिखाई दें
उनकी एक भाषा हो
और कोई उन्हें सुने
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औरतें

औरतें मिट्टी के खिलौने बनाती हैं
मिट्टी के चूल्हे
और झाँपी बनाती हैं

औरतें मिट्टी से घर लीपती हैं
मिट्टी के रंग के कपडे पहनती हैं
और मिट्टी की तरह गहन होती हैं

औरतें इच्छाएँ पैदा करती हैं और
ज़मीन में गाड़ देती हैं

औरतों की इच्छाएँ
बहुत दिनों में फलती हैं
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आता-जाता आदमी

चिड़िया गाती है
हवा पानी में घुल जाती है
धूप रेत में घुस जाती है

पेड़ छाया बनकर दौड़-भाग करते हैं
पानी पर काई फैलती है बड़ी शान से
टिड्डे उड़ान रोककर घास पर कूदने लगते हैं

ओछे दिल का आदमी बड़ी-बड़ी आँखें
बड़े-बड़े कान लिए आता-जाता रहता है
बिना कुछ देखे-बिना कुछ सुने
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मुस्टंडा और बच्चा

भाषा के अन्दर बहुत सी बातें
सबने मिलकर बनाई होती हैं
इसलिए भाषा बहुत समय एक विश्वास की तरह चलती है

जैसे हम अगर कहें बच्चा
तो सभी समझते हैं, हाँ बच्चा
लेकिन बच्चे की जगह बैठा होता है एक परजीवी
एक तानाशाह
फिर भी हम कहते रहते हैं-- बच्चा! ओहो बच्चा!
और पूरा देश मुस्टंडों से भर जाता है

किसी उजड़े हुए बूढे में
किसी ठगी गई औरत में
किसी गूंगे में जैसे किसी स्मृति में
छिपकर जान बचाता है बच्चा

अब मुस्टंडा भी है और बच्चा भी है
इन्हें अलग-अलग पहचानने वाला भी है
भाषा अब भी है विश्वास की तरह अकारथ
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