Wednesday, June 9, 2010

फैज़ की नज़्म
दश्त-ए-तन्हाई में ऐ जान-ए-जहाँ लरज़ा हैं
तेरी आवाज़ के साये तेरे होंठों के सराब
दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स-ओ-ख़ाक तले
खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन और गुलाब

उठ रही है कहीं क़ुर्बत से तेरी साँस की आँच
अपनी ख़ुश्ब में सुलगती हुई मद्धम मद्धम
दूर् उफ़क़ पर् चमकती हुई क़तरा क़तरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम

उस क़दर प्यार से ऐ जान-ए जहाँ रक्खा है
दिल के रुख़सार पे इस वक़्त तेरी याद् ने हाथ
यूँ गुमाँ होता है गर्चे है अभी सुबह-ए-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात



गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का करोबार चले

क़फ़स उदास है यारो, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

कभी तो सुब्ह तेरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-ए-बार चले

बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे ग़मगुसार चले

जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब -ए-हिज्राँ
हमारे अश्क तेरी आक़बत सँवार चले

हुज़ोओर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब
गिरह में लेके गरेबाँ का तार तार चले

मक़ाम 'फैज़' कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले




(मख़दूम* की याद में)


"आप की याद आती रही रात भर

चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर"


गाह जलती हुई, गाह बुझती हुई

शम-ए-ग़म झिलमिलाती रही रात भर


कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन

कोई तस्वीर गाती रही रात भर


फिर सबा साया-ए-शाख़-ए-गुल के तले

कोई किस्सा सुनाती रही रात भर


जो न: आया उसे कोई ज़ंजीर-ए-दर

हर सदा पर बुलाती रही रात भर


एक उम्मीद से दिल बहलता रहा

इक तमन्ना सताती रही रात भर


  • हैदराबाद के सुप्रसिद्ध जनकवि मख़दूम मुहीउद्दीन (जिन्होंने तेलंगाना आंदोलन मे भाग लिया )को समर्पित ।

गाह= कभी; शम-ए-ग़म= ग़म का दीपक; पैरहन=वस्त्र; साया-ए-शाख-ए-गुल=फूलों भरी डाली की छाया; ज़ंजीर-ए-दर=दरवाज़े की कुंडी; सदा=आवाज़


वो लोग बहुत ख़ुशक़िस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिक़ी करते थे
हम जीते जी मसरूफ़ रहे
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया

काम इश्क़ के आड़े आता रहा
और इश्क़ से काम उलझता रहा
फिर आख़िर तंग आकर हम ने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया




2 comments:

adwet said...

Faze ki is Najm ke liye shukria.

sushil said...

adewt ji blog dekhne our comment karne ka shukriya